छत्तीसगढ़विचार

आंखों पर पट्टी बांध कर क्या जनता का भला कर पाएगी सपनों की सरकार :

क्यों परेशान हैं छत्तीसगढ़ के धान किसान:

आलेख-होमेन्द्र देशमुख

रायपुर(khabarwarrior)यह कहानी छत्तीसगढ़ के एक गांव की  है,जहां 10 एकड़ के एक प्लॉट में सूखा से एक काठा भी धान नही हुआ, और मुआवजा का रेंडम सर्वे में गांव का 30 प्रतिशत का नुकसान आया ।लेकिन फाइनल रिपोर्ट में इधर-उधर कर के किसी को भी मुआवजा का पात्र नही माना जा रहा ऐसी बात किसानों और स्थानीय नेताओं ने बताई ।

असल मे इससे पहले बीजेपी के सरकारों ने अपने राज्यों में किसानों के नाम पर खूब पैसा खर्च किया । उनके समय मे उस पैसे का पूरा उपयोग किसानों के लिये नही बल्कि अधिकारियों और एजेंसियों और बीमा कम्पनियों के साथ सांठगांठ से वह पैसा कई वाजिब आदमी तक नही पहुच पाया ।

वहां भी सत्ता बदली लेकिन छत्तीसगढ़ की तरह सभी कांग्रेस की सरकारें खजाने में पैसा नही होने का रोना रो रही हैं । पैसा या खजाना विरासत में नही मिलता , टैक्स से आय-व्यय के अनुमान का प्लानिंग कर प्राथमिकता के आधार पर नई सरकारों को आगामी खर्चों का नियोजन करना पड़ता है ।

छत्तीसगढ़ में भी नई सरकार के इस कथित गरीबी में भी वही इस बार भी हो रहा है जो पिछली सरकार में हुआ । बीजेपी के नेता आरोप लगा रहे हैं कि अधिकारी बीमा कम्पनियों से मोटा माल दबा कर मुआवजा और सर्वे की गलत रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं ।

सरकार बदली लेकिन अधिकारी अधिकतर अपने वही पुराने काम ही कर रहे हैं क्योंकि अचानक लाटरी की तरह मिली सत्ता को कांग्रेस पचा नही पा रही और उन्ही अधिकारियों के चंगुल और उनकी बनाई हुई व्यवस्था में बुरी तरह जकड़ी हुई है ।

कांग्रेस में विजनरी या प्रशासनिक नेतृत्व की कमी एक साल में ही दिखने लगी है । वो दिन दूर नही जब मुख्यमंत्री का विरोध उन्ही के घर से शुरू हो जाए ।
इन्ही किसानों के हक के नाम पर मुख्यमंत्री केंद्र से लड़ने दिल्ली चले गए । क्या वह महज दिखावा था । जो आप कर सकते थे ,उतना ही सही कर लेते तो आज किसान खून के आंसू नही रो रहे होते ।

किसानों के उपज खरीदी का प्रचार हो रहा ,पर किसान के हाथ मे अपनी कमाई का पैसा नही आ रहा । छोटे किसान के उपज तो जैसे तैसे खरीद लिए पर बड़े किसान आज भी रो रहे हैं ।

सरकार ने खरीदी की तारीख कुछ दिन और बढ़ा दी है लेकिन किसानों के पास इतना स्टॉक है कि 15 मार्च तक भी अगर सरकार खरीदती रहे तब भी किसान की फसल सरकार खरीद नही पाएगी ।

अपनी सत्ता में आने के बाद वही नेता, पब्लिक या किसानों के हर बात को विरोधियों की साजिश और शिकायत समझ या नासमझी कर, उसे नजरअंदाज कर देते है, जो दूसरे की सरकार के समय आक्रोशित दिखते थे ।

उनके कार्यकर्ता चाटुकारिता में चुप बैठे रहते हैं और ये नेता आंख में पट्टी बांधकर बैठे रहते हैं बस उनका मुंह खुला रहता है ताकि पेट भरता रहे ।

ऐसे में मीडिया रिपोर्ट को अच्छी और समझदार सरकारें बहुत गंभीरता से लेती रही हैं । लेकिन मीडिया तंत्र, जब सरकारों के केवल दिखावे के प्रचार में उलझ कर अपना महत्व खोने लगे तो ,नेता लापरवाह होते जाते हैं ।

उनकी पार्टी को इसका असल नुकसान अगले चुनाव में होता है ।तब उनको समझ मे आता तो है लेकिन इतने के बाद भी अपनी गलती स्वीकार करने के बजाय जनता को ही ये उल्टे नमक हराम साबित करने में लगे रहते हैं । अपनी गलतियों को स्वीकार ही नही करते । और बड़ी गलती में पड़ते जाते हैं ।
जनता अगले पांच साल उससे भी तंग आ जाती है और वह वापिस पहले वाले पार्टी को फिर धोखे या गुस्से मे चुन लेती है । असल मे जनता पहले वाले सरकार को सबक सिखाने के लिए हटाती है तब सामने वाले पार्टी को बिल्ली के भाग की तरह छिका टूट जाने वाला फायदा मिलता है ।

जनता के पास और कोई चॉइस ही नही होती । सरकार को घमंड चढ़ जाता है ,उनका कोई विकल्प नही । अब उसी जनता का फिर नई सरकार के हाथ शोषण होते रहता है और जो पार्टी कार्यकर्ता पिछली सरकार को गालियां देते रहते थे वो अपनी सरकार के वैसे ही गलतियों को नजरअंदाज कर चुप बैठ जाते हैं ।

किसी भी सरकार में पहले उसके पार्टी के जिला सम्भाग राज्य के पदाधिकारियों की राय और सलाह मशविरा लिया जाता था । संगठन की दरी में सत्ता बैठती थी । आज उल्टा हो रहा है ।

संगठन का जनता और सत्ता के बीच सतत संवाद होता था ।उस फीडबैक से कोशिश होती थी कि सरकार और अधिकारियों की गलतियां पता चले और जनता को पार्टी और सरकार के प्रति नाराजगी से बचाया जाय । लेकिन अब पार्टी नही सत्ता बड़ा होता जा रहा है ।

पार्टी के पदाधिकारियों को आप मंत्रियों की चाटुकारिता चारनभाट और चरणवन्दना करते देख सकते हैं । पहले ऐसा कम होता था ।

ये पदाधिकारी ही सत्ता-नशीनों को उनके भक्त लालच या डर के कारण सच्चाई नही बताते , उल्टे उनके गलत फैसलों का समर्थन करते हैं और इसी गफलत में जनता चिढ़ जाती है और सत्ता हाथ से फिसल जाती है ।

पार्टी के रिस्ट्रक्चर (पुनर्संरचना)और कड़क मॉनिटरिंग से सरकार ऐसे गलतियों से बच सकती हैं लेकिन आज सत्ता के कर्णधारों को पार्टी और जनता से संवाद की फुर्सत नही वहीं वो अपने सामने किसी को कुछ नही समझते तथा उनके मंत्री अपने पद बचाने के लिए मुख्यमंत्री के सामने सच बात को छुपा लेते हैं या अधिकारियों की गलतियां और जनता की नराजगियों को बताते की हिम्मत नही कर पाते ।

एक चलन और इन कुछ सालों में चल पड़ा है कि जैसे अचानक छोटे छोटे ,अनुभवहीन और विजनरी लीडर नही होते हुए भी विधायक बन जाने पर, उन्हें सरकार में जातीय समीकरण क्षेत्रीय संतुलन , चमचागिरी ,नाराजगी आदि कारणों से मंत्री बना देते हैं ।

और ऐसे अधिकतर मंत्री या प्रतिनिधि स्थानीय या प्रमुख अधिकारियों से सख्ती से काम करवाने के बजाय उन अधकारियों के उल्टे वंदना करने या उनके साथ मिलकर कमाई करने में लग जाते हैं ।

जिससे पार्टी के निचले कार्यकर्ता और आम जनता उसे अगली बार सबक सिखाने का चुप चाप बैठकर इंतज़ार करने लग जाती है ।

इस लोकतंत्र के राज में लोक (जनता) के बजाय तंत्र (व्यवस्था का फंदा ) उसी जनता के गले पर कसा दिखाई पड़ता है ..

पर ऐसे में भी नुकसान असल मे आम जनता का ज्यादा होता है । यह सिलसिला खत्म कहां होगा..?

आज बस इतना ही..!

(लेखक एबीपी न्यूज़ में वीडियो जर्नलिस्ट हैं)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button