विचार

घरों की दीवारें तो जुड़ी हैं,-रहवासियों के दिल नही

 होमेन्द्र देशमुख की कलम से 📝🖋️🖊️ _______________________

मेरे एक मित्र शहर के अच्छी, महंगी और सभ्य कालोनी में रहते हैं । इस पॉश टाऊनशिप के बड़ी बड़ी हवेलियों के बीच उसने पांच साल पहले दो हजार वर्गफुट का छोटा सा मकान खरीदा है । आपस मे सब की दीवारें भी जुड़ी हैं लेकिन दिल शायद किसी के नही जुड़े हैं ।

‘नामी लोगों का बसेरा है, शहर का पॉश कालोनी कहलाता है’

पड़ोस में सुख-दुख का पता तो दूर ,इनके होने या न होने का अहसास केवल दरवाजा खुलने और बंद होने पर ही होता है । मित्र बताते हैं कि कालोनी के दो रहवासियों को भी कभी आपस मे नमस्कार करते भी नही देखा । मित्र यह भी बताते हैं कि मैं अगर जबरदस्ती नमस्कार कर लूं तो कमीज में लगे कीचड़ की तरह झटकाकर तुरंत वहां से निकल जाते हैं कि यह क्या कर दिया ।

सभ्य और रईसों के बीच आकर वह फंसा महसूस करता है । हो सकता है ,मेरे मित्र का अनुभव कुछ ज्यादा ही अतिशयोक्ति और कड़वा हो ,पर अब वह उस कालोनी को छोड़कर जाने का मन बना चुका है ।

कोरोना के ख़ौफ़ ने सड़कों ,शहरों को सुना कर दिया है लेकिन इन सड़कों के पीछे लोग घुल-मिल कर रह रहे हैं । परंतु इस कालोनी की यह अवस्था बड़ा डराता है जो वायरस से भी खौफ़नाक है ।

शहर के एक रईस अपने बूढ़े पिता को हवेली की जगह एक अपार्टमेंट के फ्लैट पर शिफ्ट कर दिए हैं । बेटे का परिवार भी पास में किसी फ्लैट में रहता है । बेटा बहु परिवार नर्स समय समय पर आते हैं । शायद पिता की कोई इच्छा हो ,हवेली में दम घुटता रहा हो या परिवार की कोई मजबूरी ।

पिछले दस बारह दिनों से कोरोना केे किसी संभावित खतरे के कारण प्रसाशन की सलाह पर मै अपने घर के कमरे में सेल्फ क्वेरेन्टाइन पर हूं । विदेश से नही आया , तीसरे स्टेज का संक्रमित या वाहक न बन जाऊं इसलिए यह मेरे और समाज के लिए भी जरूरी है ।

मैं स्वस्थ हूं । लॉकडाउन के कारण मेरे अपार्टमेंट परिसर में अधिकतर पड़ोसी इन दिनों घर पर हैं । मुझे और मेरे घर की ही नही बल्कि जिनके फ्लैट में केवल महिलाएं या बच्चे इन दिनों अकेले रह रहे हैं ,उन्हें भी रोजमर्रा के हर समान की जरूरत पड़ोसी ही पूरी कर रहे हैं ।

लॉकडाउन के नियमों का पालन करते हुए भी परिसर में बच्चे बोर नही हो रहे ,महिलाएं चुप नही हो रहीं । अपने-अपने दरवाजों, झरोखों और बालकनियों से इनके किटी और चुगलियां भी जारी है। घरों के पुरुष और खुद ये महिलाएं सभी के घरों की जरूरतों का खयाल रख रहे हैं ।

मैं बंद कमरे के झरोखे से उनको अपनी जरूरतें बता रहा हूँ और मेरे घर सैनेटाइज़र की शीशी ,दवा, दूध पड़ोसी पहुँचा रहे और । वो दिन में मुझे वही से बेफिकर रहने का भरोसा दिलाते हैं । और ऐसी किसी बड़ी जरूरत आई भी न हो तब भी वे साथ खड़े रहने को आश्वस्त कराते हैं ।

कोरोना की फांस में शहर के शहर में रहने वाला रिश्तेदार फंसा हुआ है , बाप किसी दूसरे शहर में तो माँ किसी दूसरे शहर में है । ऐसे में कम्युनिटी ही कम्युनिटी के काम आ रहा है ।

“पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है ” , “जिसका पड़ोसी मित्र नही उसका कोई मित्र नही”!

ऐसी कहावतें पुरानी और कुछ की नज़रों में दकियानूसी साबित हो रही थी ।घरों की दीवारें तो जुड़ी हैं -रहवासियों के दिल नही

पर सच मे , “आज पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आ रहा है ।” वही सबसे बड़ा मददगार है ।

250 फ्लैट्स की कालोनी , भोपाल के पारस सिटी की निवासी मिसेज़ शालिनी बताती है- बारह विंग्स में रह रहे लगभग 1000 लोग ,परिवार की तरह मिलकर लॉकडाउन का एक साथ सामना कर रहे हैं ।सारे लिफ्ट बंद हैं, तब किसी इमरजेंसी में युवा ,रहवासी और महिलाओं की टीमों ने अपने काम बांट लिया है ।

एक सब्जी वाला नियत समय मे आकर परिसर के चबूतरे में बैठता है ,और बालकनी से सोशल डिस्टेंसिंग पर नजर रख एक एक कर सब्जी ले आते हैं या पड़ोस वाले से मंगा कर दरवाजे के बाहर रखवा लेते हैं । धोबी बंद है , एक दूध वाला ,पेपर वाला के प्रवेश पर सोसायटी की निगरानी है । बुजुर्ग मरीजों की एक दूसरे को जानकारी है ।

संयुक्त परिवार की घटती संख्या , असुरक्षा, अकेले रहने की मजबूरी या नई संस्कृति, पिछले कुछ सालों में बढ़ी है । दूध वाला ,अख़बार वाला, सब्ज़ी वाला काबुली वाला डिब्बा वाला ड्राइवर इलेक्ट्रीशियन वेल्डर डॉक्टर ,मेडिकल… आदि ।

हमारी रोज की जरूरतें यही लोग पूरी करते हैं । बस आपके पास पैसे होने चाहियें । सब हाज़िर ..!
और तो और न रिश्तेदार चाहिए न पड़ोसी ।
चंद घंटों की हवाई यात्रा में विश्व और देश के कोने कोने में पहुँच , दवा और भोजन तक की Online घर पहुच सेवा का बाज़ार अब किसी के बिना जीने का साधन बन रहा है ।

रोटी कपड़ा और मकान

ये तीन चीजें जंगल मे भी मिले तो आप जिंदा रह सकते हैं । जीवन की इन तीन भौतिक जरूरतों से एक एक चीजें कम करते जाते हैं ।

रोटी – रोटी का मतलब केवल आटे की रोटी से नही । उदरपूर्ति से है । कोई मांस खाता है कोई अनाज खाता है कोई सांप बिच्छु खा ले कोई और कुछ..जब हम खाना खाते हैं ,मानव का पाचन तंत्र उसे लगभग ढाई सौ प्रकार के एन्जाइम्स में बदलता है जो शरीर के लिए जरूरी तत्व में परिवर्तित हो जाते हैं । जैसे खून, मास, मज्जा, हड्डी आदि । कुछ तो खाना पड़ेगा । कुछ नही खाने वाले योगी भी होंगे वह अलग दशा और विषय है ।

कपड़ा– कपड़ा ,एक किसम का पर्दा है ,सभ्यता का झूठा आवरण, जिसे विकास और विनाश की दशा में टाला या वैकल्पिक साधन जुटाए जा सकते हैं ।
तीसरा है मकान – जंगल ज्यादा था । लोग रहने चले जाते थे । संस्कृति नग्न रहने की थी । खुले आकाश में रहने की थी । मकान सभ्यता और संस्कृति के विकास का परिणाम है । ऐसा भी नही कि हम जंगल मे या खुले में रहें तो जिंदा नही रहेंगे ।

हां आज सभ्य समाज मे जरूर हमारे जीवन का यह जरूरी हिस्सा है ।
इन तीनों के बिना जीवन ,जीवन नही ऐसा माना जाय तो गलत है ।
हां ! आज , तथाकथित सभ्य और विकसित समाज मे समाजिक ,जीवन असंभव है । अकल्पनीय है । शहर का आम आदमी आज जंगल मे जाकर नही रह सकता ।

अमेरिकन टीवी पर सालों से एक सरवाइवल शो चल रहा है ” *Naked and Afraide* “

जिसमे चार सप्ताह के लिए अच्छे पीएसआर यानि जिंदा रहने के सात अलग अलग पैमानों के अनुसार , मतलब जिसका पीएसआर माप में 10 में से 10 आए वह जंगल मे बिना भोजन बिना कपड़े और बिना घर के रहने में सक्षम हो सकता है ,ऐसा माना जाता है ।

पिछले लगभग पांच सालों में किसी भी प्रतिभागी का पी एस आर दस में से दस नही आया है । चार सप्ताह तक अमेज़न के जंगल और साइबेरिया के बर्फीले पहाड़ सहारा और दक्षिण अफ़्रीका के रेगिस्तानों में सरवाइवर को बिना रोटी, कपड़ा और मकान के छोड़ दिया जाता है । तन का आखिरी कपड़ा भी उतरवा लिया जाता है । पांच से ऊपर पीएसआर वाले कुछ लोग बमुश्किल यह टास्क अभी तक पूरा कर पाए हैं ।

मतलब है , अब इंसान जंगल मे सरवाइव नही कर पायेगा । उसे भोजन पानी कपड़े और मकान की आदत लग चुकी है । उसे परिवार, पड़ोसी,समाज याद आते हैं । यह समाज ,मनुष्य की कमजोरी बन चुकी है ।

बचपन से स्कूल की किताबों में पढ़ते आ रहे हैं – “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसका विकास समाज मे होता है “

मैं कहता हूं मनुष्य का समाज के बाहर अस्तित्व ही नही हो सकता । चाहे उसके पास कितने भी पैसे हों ,भोजन और कपड़े के साधन हों ।

यह भी सच है कि समाज पड़ोसी रिश्ता पैसे से नही खरीदे जा सकते । उसके लिए स्वयं को भी पड़ोसी ,रिश्तेदार और रिश्तेदार बन कर समाज का अंग बनना ही पड़ेगा । चाहे आप हवेली के मालिक हों, टाटा हो अंबानी हों । कुछ लोग इसे नकारने की कोशिश करते आ रहे हैं ।यह उनकी असफल कोशिश हैं । प्रकृति हमे याद दिलाते रहती है ।

आज कोरोना के खौफ़ के सामने पैसे ,धन संपत्ति, हवेली, महल किसी काम के नही । अगर काम के हैं तो आपके आसपास परिवार, पड़ोसी ,बन कर रह रहे लोग जो केवल ‘इंसान’ हैं , उनका साथ सच्चा धन और आपस मे भरोसा आपकी सच्ची पूँजी ।

आज बस इतना ही ..!

(लेखक सीनियर वीडियो जर्नलिस्ट हैं)

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