और भी हैं राहें……..

बंद करो संगवारी,
दारु की दुकान दारी,
झबेंद्र भूषण वैष्णव🖍️🖍️
येन केन प्रकारेण कोरोनावायरस के संभावित खतरा और लाॅकडाऊन के बीच मदिरालय का पट , प्रेमियों के लिए अनुत्तरित प्रश्नों के साथ खुल ही गया । शायद, इसका उत्तर अगले कुछ साल या सदियों तक न मिले।ये द्वन्द भ्रमित करती है कि ,शराब लोगों की जरुरत है या सरकार की?
1नवंबर 2000को भारत के नक्शे में जब छत्तीसगढ़ राज्य का उदय हुआ, सूरज की पहली किरण के साथ, लोगों के मन में बेहतर जीवन की उम्मीद भी जागी। सीमित बजट और संसाधनों के शनै:शनै: बढ़ते हुए प्रदेश अपने तरुनाई तक अनेक समाजिक और राजनैतिक उतार चढ़ाव देखा।अब वो समय है देखने और विचारनें का कि हमने क्या खोया ,और क्या पाया।दो दशक बाद भी मन को नवगठित राज्य होने का झुठा आश्वासन या संतोष साध लेना, धोखा होगा।
शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसा लेने से तुफान का खतरा कम नही हो जाता।
बेशक हमने कई उपलब्धियां हासिल की है।प्रदेश का पीडीएस माॅडल पुरे देश में सराही जा रही है , कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर सराहनीय रहा। उद्योगों के लिए अनुकूल माहौल के कारण उद्यमी आकर्षित हो रहे हैं,खनिज और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर,राज्य में गौरव होने का पर्याप्त कारण है।
समाजिक और सांस्कृतिक संपन्नता हमारी पहचान है।इन खूबियों के बाद भी पिछड़ा और गरीब प्रदेश होने का तमगा आज भी गले पड़ी है ,यह हर छत्तीसगढीयों को निराश करती है। कहीं इसकेे मूल में नशाखोरी तो नही है?
विचार अवश्य होना चाहिए। क्योंकि आंकड़े चौंकाने वाली है।एम्स का नेशनल ड्रग डिपेन्डेंस ट्रीटमेंट सेंटर ने 2017-18के बीच में देशव्यापी सर्वेक्षण किया जिसमें छत्तीसगढ़ के 33%आबादी मतलब 82.5लाख लोग शराब का आदतन सेवन करते हैं ,अधिकांश 15से29वर्ष के युवा वर्ग हैं।जो कि राष्ट्रीय औसत 14.6%(16करोड़) से बहुत ज्यादा है।
विधानसभा में पेश आंकड़ों में यह संख्या 35%से उपर है।0से 12आयु वर्ग और महिलाओं की संख्या को हटाकर देखें (ज्यादातर महिलाएंऔर बच्चे शराब का सेवन नही करते ) तो स्थिति की भयावहता डरावनी है।
मंगल उत्सव में शौक से कभी कभी पीया जाने वाला सोमरस पता नहीं कब और कैसे आदत में शुमार हो गयी, और दारू बनकर तांडव करने लगी।
इन 20 वर्षों में जहां प्रदेश की जनसंख्या में वृद्धि (2001में 2करोड़ 9लाख एवं2011की जनसंख्या 2करोड़55लाख के आधार पर अनुमानित 2करोड़ 90लाख) 37.75प्रतिशत, वहीं पर शराब जो कि वर्ष 2002-03 में 188.12लाख प्रुफ लीटर देशी और 130.04लाख लीटर विदेशी की तुलना में 2019-20में औसत देशी 480लाख लिटर विदेशी 300लाख लीटर खपत के आधार में इन 17वर्षों में शराब की खपत दुगुने से भी ज्यादा( 116% ) हो गया।और हम दारु बिक्री और पिने के मामलों में शिर्ष पर आ गये।
यहां के उर्वरा भूमि और मेहनती किसानों ने बेहतर खाद्य सुरक्षा दिया, इसके बावजूद भी कुपोषण और पौष्टिक आहार का इंडेक्स संतोष प्रद नही है ,इंडियन इनोवेशन रिपोर्ट(भारत नवाचार सूचकांक)2019के रिपोर्ट में 17बड़े राज्यों में हम 15वें स्थान पर हैं *कहीं इसका कारण भट्ठीयों में लगने वाले युवाओं की भीड़ तो नही है*? प्रश्न तो कथित विकास पर उठेगा ही?
दारु का अर्थशास्त्र-राज्य के अस्तित्व से कांग्रेस सरकार के तीन वर्ष और भाजपा का दो पंचवर्षीय रमन सरकार में न प्रजा ने सुध ली और न तंत्र नें , शराब का फोड़ा घाव से नासूर बनता रहा। 2012-13 के शराब के आंकड़ों ने समाज को चौंकाया ,दबी जुबान से आलोचना भी शुरू हुआ मगर जनसमर्थन के आभाव में आवाज़ बुलंद नही हो पाया। सरकार पर शराब बेचकर मुफ़्त चावल बांटने का आरोप आम हो गया ।उन्ही के पार्टी के कुछ सज्जन नेताओं ने सार्वजनिक रूप से स्विकार किया कि शराब से पिंड छुड़ाने का वक्त आ गया है।
राजनीति का छद्म रूप आंशिक नशा मुक्ति योजना, के रूप में 286 देशी और 49 विदेशी शराब की दुकानों में ताला बंदी कर सामने लाया गया ये नही बताया गया इससे फायदा क्या हुआ ?
सरकारी अर्थशास्त्रीयों को ये जरूर पता था कि, डोन्टवरी प्यासा मरूस्थल में भी पानी ढुंढ लेता है हमनें तो सिर्फ़ दारु भट्ठी की दूरी ही बढ़ाई है।हर साल शराब से मिलने वाले राजस्व में वृद्धि का लक्ष्य बढ़ाकर नये नये कलेवर में लोगों को शराब परोसना शराब बंदी का हिस्सा तो हो नही सकता।लोग विनाश देख रहे थे और सरकार के नीति निर्धारक वर्ग शराब से मिलने वाली राज्सव में विकास की परिभाषा गढ़ रहे थे ,परन्तु विकास किनका?ये अनुत्तरित प्रश्न छोड़कर सत्ता से विदा होना पड़ा।
वर्तमान कांग्रेस सरकार तो शराबबंदी का वादा करके ही सत्ता में आई है जिनका डेढ़ साल बितने को भी है।शराब बंदी को लेकर समिति भी बना दिया गया ,पार्टी प्रवक्ता दम ठोक कर कह भी रहे हैं हमारी सरकार अपने वायदे से पिछे नही हटेगी। सिर्फ कब? का जवाब नही है इनके पास।
एक अप्रैल से 50 दुकानें बंद करना और शराब से होने वाली आय 11%बढ़ाने का लक्ष्य रखना शराबबंदी का संकेत तो नही हो सकता? पिछली सरकार चली गयी ,पर लगता है प्यादा छोड़ गयी है? जो सरकार को दारु की दुकानदारी सिखा रही है अब तो मुख्यमंत्री जी के ड्रीम प्रोजेक्ट गरूवा की जिम्मेवारी भी बेवड़ो के कंधों में आ गयी है।
RBI के द्वारा जारी 2018-19में राज्यों की आर्थिक सर्वेक्षण स्टेट आफ स्टेट्स रिपोर्ट के अनुसार पुरे देश में शराब बिक्री से कमाई पर सर्वाधिक आर्थिक निर्भरता छत्तीसगढ़ की है । वर्तमान सरकार ये कह सकती है कि सारा किया कराया पिछली सरकार की है,मगर कब तक? जनता पुछ रही है?
आपने डेढ़ वर्ष में शराबबंदी के लिए क्या प्रयास किया?आपके स्वास्थ मंत्री कहते हैं शराब समाजिक बुराई है जागरूकता से खत्म किया जाना चाहिए एक झटके में कानून से नशामुक्ति का फार्मूला देश में कहीं सफल नही है ।
प्रश्न उठता है,आप बिहार माड्ल क्यों नही लेते? ,गुजरात माड्ल क्यों नही लेते?चाहो तो नागालैंड,सिक्किम माड्ल भी ले सकते हैं?प्रदेश के उन लाखों माताओं का दर्द जो कल तक दिख रहा था आज दीखना बंद हो गया ?क्या सरकार को ये समझ आ गया है कि सरकार और राजनीतिज्ञों के सेहत के लिए शराब जरुरी है?
मेहनतकश लोग जिनका स्वास्थ और ताकत ही पूंजी है, शराब नें उनकी अर्थव्यवस्था खराब कर रखी है, क्या इन्हे और गर्त में जाने का इंतजार हो रहा है?क्या शराब नही पीने से बचा पैसा अर्थव्यवस्था को नही सम्हाल पायेगा?भ्रम से निकलिए ।घाव जब नासूर बन जाता है तो उस अंग को काट कर फेंक देना ही समुचित इलाज है।
कोरोनावायरस काल नें ये साबित किया है कि बिना शराब के या कोई भी नशा के , रहा जा सकता है ,निर्भरता उपलब्धता पर है। 45 दिन का समय प्रयोग के तौर पर बहुत है।
लाॅकडाउन में शराब बेचने की बेचैनी प्रमाणीत करता है दारु की दुकानदारी सरकार की मजबूरी बन गयी है वर्ना लोग तो आपके हर आदेश का पालन कर रहे थे ।ये छत्तीसगढ़ की जनता है जिसको चुनती है उसकी सुनती भी है ।
मुख्यमंत्री जी आप एक बेहतर मौका खो दिये।रही बात वित्तीय प्रबंधन की आप अपील तो करते ,लोग शराबबंदी के लिए हर क़ीमत चुका देते।माली अगर ऊंगलीयों का जख्म गिनेगा तो बाग में सुंदर गुलाब कैसे खिलेगा? ये मौक़ा हाथ से निकल जाने का मलाल शायद आपको अपने राजनीतिक जीवन में हमेशा रहेगा।शराब बंदी के लिए छद्म अर्थशास्त्र को तिलांजलि देना ही होगा । हिम्मत दिखाना होगा ।
और भी है राहें——-
झबेंद्र भूषण वैष्णव
( कृषक )
एवं
महासचिव ,छत्तीसगढ़ प्रगतिशील किसान संगठन