विचार

कुनबे में तकरार से उठते सवाल

आलेख : बादल सरोज✍️

मोदी मधोकत्व को प्राप्त होंगे या आडवाणीगत होंगे, योगी कल्याण सिंह बनेंगे या उमा भारती?

सप्ताह भर से नागपुर-लखनऊ में जारी योगी-भागवत कथा का योगायोग यह जिज्ञासा उत्पन्न करता है कि भक्तों के ब्रह्मा जी नरेन्द्र मोदी आने वाले दिनों में बलराज मधोकत्व को प्राप्त होंगे या अडवाणीगत होंगे। थोड़ी दूर की कौड़ी है, मगर आरएसएस के राजनीतिक विभाग जनसंघ और भाजपा के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए उतनी दूर की भी नही है। ऐसे में सामयिक हो जाता है कि भाजपा नामक इस पार्टी – जो पार्टी नहीं है – के मौजूदा हाल और इसके नीति नियामक आरएसएस – जो बकौल खुद राजनीतिक पार्टी नहीं – के अप्राकृतिक राजनीतिक संबंधों की थोड़ी-सी पड़ताल कर ली जाए।

उत्तर से दक्षिण तक रार और तकरार

इधर योगी हठयोगी बनने की ओर अग्रसर हैं। उत्तर प्रदेश को शोक प्रदेश बनाने के बाद मुख्यमंत्री निवास को कोपभवन बनाये मुंह फुलाए बैठे हैं। बड़ी मुश्किल से कल हरे कुर्ते के संग भगवा बाने की एक तस्वीर दिखने में आयी। योगी की इस “करना है, सो कर लो” मुद्रा पर उन्हें यहां तक पहुंचाने वाले मोदी इतने कुपित हैं कि साधारण ट्विटर फॉलोअर और आम कार्यकर्ता को भी जन्म दिन की शुभकामनाओं वाली अनगिनत चिट्ठियां लिखने के अपने रिकॉर्ड को भुला अपनी ही पार्टी के टन्न भगवाधारी मुख्यमंत्री को जन्मदिन की शुभकामनाये देना भूल गए हैं। विधानसभा चुनाव में फकत 6 महीने बचे हैं और कुनबे में रार मची है।

दक्षिण के इकलौते भाजपा शासित राज कर्नाटक में भी मोदी की आभा का आभासीय सूर्य दक्षिणायन की ओर है। बदनामी में सबसे नामी रहे, पार्टी से निकाले जाने के बाद फिर झक मारकर मुख्यमंत्री बनाये जाने वाले येदियुरप्पा खट-पाटी लिए बैठे हैं और सीना ठोंक कर कह रहे हैं कोई उन्हें हटाकर तो देखे। केरल में गठबंधन बनाने के लिए करोड़ों देने का वादा करके सिर्फ कुछ लाख में टरका देने वाली गोपनीय वार्ताएं वायरल हुई पड़ी हैं, तो मध्यप्रदेश में बंगाल से पिटकर आये कैलाश विजवर्गीय और प्रतीक्षा में औरंगजेब हो चले अलग-अलग क्षत्रप अखाड़े में ख़म ठोंकने के अंदाज में भुजाएं भांज रहे हैं।

निर्वाचित विधायकों सहित बंगाल के अनेक दलबदलू भाजपाई पुनर्मूषको भवः होने के लिए पंक्तिबद्ध हुए खड़े हैं। बिहार में एक से ज्यादा विधायक कह चुके हैं कि भाजपा उनकी वजह से है, वे भाजपा की वजह से नहीं। असम में चुनाव जीतने के बाद ही भगदड़ मचने की आशंका में निवर्तमान मुख्यमंत्री सर्वानंद के सारे आनंद भंग कर बिना किसी शर्म के कांग्रेस से आयातित हेमंत बिश्वसर्मा की ताजपोशी करनी पड़ी है।

यह इनके चेहरों की हर रोज बेपर्दा होती बदशक्ली है। ये ऊपर-ऊपर की मलाई के हाल हैं — नीचे की तलछट की तराई की कहानियां और भी थ्रिलिंग हैं। उनकी चाल गजबई है। जबलपुर में नकली दवाओं को भी ब्लैक में बेचकर मरीजों को मोक्ष की भागवत कथा सुनाते पकडे गए विश्व हिन्दू परिषद् के अध्यक्ष से लेकर सूरत से बरास्ते इंदौर होते हुए भोपाल तक और बाकी देश में भी, असली और नकली दोनों तरह के दवा-ऑक्सीजन और टीके की कालाबाजारी में नामजद और गिरफ्तार हुए अपराधी या तो सीधे भाजपाई हैं या उनसे भी ज्यादा खरे, शुद्ध हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी संघी हैं।

देश और उसकी जनता सहित ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको इनने ठगा नहीं। चरित्र की बात तो शुरू ही न की जाए, तो बेहतर है वरना सिर्फ सार्वजनिक रूप से वायरल हुयी सीडी और वीडियोज की गिनती कराते-कराते ही साल गुजर जाएगी। मोदी की ताजपोशी की सातवीं बरसी पर “सेवा ही संगठन” है, का जाप करने वाले संगठन की सेवाओं की यह सिर्फ एक झलक भर है।

अनुशासन का पाखण्ड, स्थिरता का दावा चूरचूर

अनुशासन के ढोंग-धतूरे, राजनीतिक स्थिरता देने का अहंकार, अलग तरह की पार्टी होने का दम्भ और राज चलाने – गवर्नेंस – की माहिरी का पाखण्ड आदि-आदि सभी दावे चकनाचूर हुए पड़े हैं।

मगर यह आज की बात नहीं है – यही चाल, चरित्र और चेहरा इनका डीएनए है। योगी आदित्यनाथ या येदियुरप्पा कोई नया आयाम नहीं है। रार इस फासिस्टी धारा का आम प्रवाह है। ये जैसे भीतर हैं, वैसे ही बाहर हैं। वर्ष 1980 में भाजपा की स्थापना के बाद से अब तक बने 11 अध्यक्षों में से ऐसा एक भी नहीं हैं, जिसे सम्मान से विदा किया गया हो और जिसे आदर से याद किया जाता हो। अटल जी इस मामले में अर्ध-सौभाग्यशाली रहे कि उनकी आख़िरी कुछ वर्ष गंभीर बीमारी के चलते अलग ही तरह की अवस्था में कटी। हालांकि उन्हें भी उनके स्वर्णिमकाल में भी उन्ही के संगी संघियों द्वारा किन-किन खूबियों से बख्शा गया था, यह लोगो को याद है।

आडवाणी, जोशी की गत जगजाहिर है। उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में राजनाथ सिंह की भंगिमा भी सबने देखी है, जिसमें वे खुद ही, खुद को हटाकर अध्यक्षी पर अमित शाह को बिठाने का एलान कर रहे थे। ऐसा नहीं कि यह सिर्फ भाजपा में हुआ – इसके पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ में भी ज्यादातर के साथ यही हुआ। पंडित श्यामाप्रसाद मुखर्जी को जम्मू में दिल का दौरा नहीं पड़ा होता, तो उनकी भी ऐसी गति होती — यह बात उनके बाद पहले अस्थायी और फिर स्थायी अध्यक्ष बने पंडित मौलिचन्द्र शर्मा ने खुद बताई थी, जब उन्हें धकियाकर निकाला गया।अपमानजनक तरीके से निकाले गए सबसे पुराने और कद्दावर संघी बलराज मधोक का नाम लेने से तो भाजपाई आज भी कतराते हैं।

ये खो-खो, कबड्डी सिर्फ संगठन में हुयी हो — यह बात नहीं है। जिन-जिन राज्यों में इन्हे सरकार चलाने का मौक़ा मिला, वहां भी यही, कई जगह तो इससे भी बदतर रिकॉर्ड रहा। इमरजेंसी के बाद के ढाई बरस चली मध्यप्रदेश की सरकार में तीन मुख्यमंत्री बदले गए। इसके बाद दिसंबर 2003 से नवम्बर 2005 के दो वर्षों में मप्र ने फिर तीन भाजपाई मुख्यमंत्री देखे। नए बने प्रदेश उत्तराखण्ड में तो कोई भाजपाई सीएम अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। पहली किश्त में 11 महीने में 2, दूसरी किश्त में 4 साल में 3 और वर्तमान कार्यकाल में अब तक 2 बदले जा चुके हैं। योगी आदित्यनाथ को हटाने की मुहिम शिकार के मौके पर घोड़ा बदलने भर का काम नहीं है।

यह भाजपा की परम्परा की निरंतरता है। इसी यूपी में 1997 से 2000 के बीच तीन वर्षों में भाजपा तीन-तीन घोड़े बदल चुकी है। हाल के मप्र के शिवराज के एक अपवाद, जिसकी ख़ास वजह कुछ और है, को छोड़ दें तो कोई भी भाजपा शासित प्रदेश इस अस्थिरता से नहीं बचा। गुजरात में मोदी के आने के पहले 9 महीने में 2 और मोदी के हटने के बाद के 26 महीनो में 2 मुख्यमंत्री बदले गए। दिल्ली राज्य में जब आख़िरी बार भाजपा सरकार में थी, उन पांच वर्षों में 3 मुख्यमंत्री दे चुकी थी। झारखंड की कहानी भी यही है, जहां मराण्डी और मुण्डा के बीच मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना का खेल खेला गया।

विग्रह डीएनए में, खोट बनावट_में

इसकी असली वजह वही है, जिसे जनसंघ के दूसरे अध्यक्ष पंडित मौलिचन्द्र शर्मा ने कहा, बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा में लिखा, आडवाणी-जोशी ने अलग तरीके से बुदबुदाया, योगी संकेतों में बता रहे हैं। यह वजह है आरएसएस की भूमिका। मौलिचन्द्र शर्मा कहते हैं कि “पदाधिकारियों के चयन से लेकर फैसले लेने तक पार्टी में कोई लोकतंत्र नहीं है। सारे हुकुमनामे और फतवे आरएसएस देता है। पार्टी नाम की कोई चीज ही नहीं है।”

उन्होंने यह भी कहा कि “श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी आरएसएस के इस दैनंदिन हस्तक्षेप से आजिज आ गए थे और अपने कश्मीर दौरे से लौटकर इस्तीफा देने का मन बना चुके थे।” आदित्यनाथ और येदियुरप्पा भी ठीक यही बात कह रहे हैं। ताज्जुब नहीं होगा यदि कल नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी इस तरह की बातें कहने की स्थिति में पहुँच जाएँ, क्योंकि एक फासिस्टी विचार पर टिका संगठन व्यवहार में भी मूलतः और अंततः फासिस्टी होता है।

उसका एक चालकानुवर्ती सांगठनिक सिद्धांत खुद अपने लोगों पर भी उसी तरह लागू होता है, जिस तरह वह पूरे देश और समाज पर लागू करना चाहते हैं। यह रिश्ता संसदीय लोकतंत्र में काम करने वाली किसी भी राजनीतिक पार्टी के निषेध का रिश्ता है। उस पर जब सामने वाले (मोदी और आदित्यनाथ दोनों) भी एकचालकानुवर्तित्व में ढले हों, तो नमक से नमक खाने के हालात बनना लाजिमी है। “हम दो – हमारे दो और उनके संग एक” में सिकुड़कर रह गयी भाजपा के लिए तो यह कोढ़ में खाज जैसी अवस्था है।

हाल के दौर में मच रही रार और उठती तकरार के पीछे एक और महत्वपूर्ण कारण है। राजनीति में यह एक निर्णायक कारण होता है। जैसे-जैसे सत्ता जनता से दूर होती जाती है, जैसे-जैसे जनाक्रोश फूटने लगता है, वैसे-वैसे सत्तावर्गी पार्टी और उसके नेता/नेताओं का शीराजा बिखरने लगता है। कोरोना महामारी से देश को बचा पाने की असफलता और मौतों के बीच भी कारपोरेट और अपनी कमाई की व्याकुलता जाहिर-उजागर हो चुकी है।

किसान आंदोलन के निरंतर जारी और तेज से तेजतर होते निनाद ने जो हाँका लगाया है, उसने हुक्मरानों के पांवो तले से सारे मखमली कालीन खींच कर उन्हें तपती धरा पर ला खड़ा किया है। ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी के अपराजेय होने का दम्भ टूट चुका है। स्वयंभू ब्रह्मा की महानायक छवि तार-तार हो रही है ; प्रतिनायक से खलनायक होने तक पहुँचती दिख रही है।

यह धरातल पर हो रही धमक है, जिसने महल के अंतःपुर में हलचल और कोहराम-सा मचाया हुआ है। बस हुंकार को थोड़ा और तेज करने की जरूरत है। ठीक यही काम है, जिसे इस देश जनता के ज्यादातर लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संगठन और करोड़ों भारतवासी अपने-अपने तरीकों से करने में जुटे हैं।

(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 094250-06716)

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