विचार

‘सांसों’ की कतार…..

होमेन्द्र देशमुख की कलम से ✍️

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23 अप्रेल की शाम चार बजे के करीब की बात होगी । मेरे एक मित्र सिलेंडर लेकर अपनी बीमार मां के लिए, भोपाल में एक रिफिलिंग प्लांट के बाहर लगे आक्सीजन की कतार में चालीसवें नंबर पर खड़े थे। इसी कतार में कुछ निजी कारों ,ऑटो, मिनी ट्रक के अलावा चौदह एम्बुलेंस भी लगे थे जिन्हें यहां घंटों खड़े होने के बजाय सड़कों पर मरीजों की सेवा में दौड़ना था ।

खैर , पिछले चार घंटों में महज चालीस फुट आगे बढ़ी वह कतार, अस्पताल में बेड की कमी के कारण घर मे इलाज करा रहीं मेरे उस मित्र की कोविड पैशेन्ट मां की सांसों के न टूटने का भरोसा बढ़ा रहा था । वह चिंतित तो थे पर उम्मीदों से भी भरे थे ।

बड़े बड़े सुपरस्पेशलिटी अस्पतालों में जहां आक्सीजन बेड नही मिल पा रहे थे वहीं बाहर, हर तरफ आक्सीजन के लिए मारामारी थी । मित्र की मदद न कर पाने की मजबूरी मुझसे कहते नही बना । वो समझ रहे थे और उन्हें मुझसे कोई उम्मीद भी नही थी क्योंकि उनकी जगह उसी कतार में किसी दिन मैं भी हो सकता था । क्योंकि हम दोनो ‘सामान्य लोग‘ थे । उनकी इस मजबूरी में मुझे अपनी मजबूरी की भी झलक दिख गई और मेरे विचलित और चिंतित मन में अफ़सोस भर गया ।

रात 9 बजे मैने उन्हें फोन कर फिर पूछा , तो उसने बताया कि वह कतार में चौदहवें नंबर पर आ चुका है और उसे रात 11 बजे तक आक्सीजन सिलेंडर मिल जाने की उम्मीद है । अब तक एक एक “सांस” जवाब देने लगी थी । मेरी, उनकी और उनके मां की…

1960 के दशक में वैज्ञानिकों ने विश्व भर में एक सर्वे कर पता लगा लिया था कि मुंबई टोक्यो और न्यूयार्क की हवा इतनी प्रदूषित हो चुकी थी कि वे हैरान थे कि हवा में इतने जहरीले तत्व शामिल हो जाने के बाद भी मनुष्य यहां जिंदा कैसे हैं । उन्होंने खतरा जाहिर किया था कि 20 वीं सदी के अंत या 21 वीं सदी के शुरुआती कुछ सालों तक इन शहरों में लोगों को खुली हवा में सांस लेना मुश्किल हो जाएगा और कुछ चंद पैसे वाले लोग ही मास्क और डिब्बे के जरिये आक्सीजन ले सकेंगे । बाकी या तो बीमार रहेंगे या नल में पानी की कतारों की तरह आक्सीजन की कतारों में किसी फिलिंग स्टेशन से दो पांच मिनट आक्सीजन की सांस लेकर जैसे तैसे अपने24 घण्टे निकालेंगे या फिर तड़पते मारे जाएंगे ।

मानव का शरीर बहुत कुछ सहता चला जाता है । अपने आप को उसी बदली प्रकृति में बहुत हद तक ढाल लेने की उसमें अद्भुत क्षमता है । जीने की धारा धीरे हो जाय लेकिन जीवन चलते रहता है ।
सरकारों ने उन स्थितियों को कुछ हद तक भांपा और विश्व भर में पर्यावरण पर बहुत कुछ काम किये गए । शायद, इसीलिए आज वह स्थिति तो नही आई लेकिन देश भर में 2021 में कोरोना रोग से पीड़ितों को हुई आक्सीज़न की कमी और उखड़ती सांसों की भयावह अनुभव ने उस आशंका और कल्पना को नजदीक से फलित होते देखा ।
प्राकृतिक रूप से सांस नही ले पाने वाले हजारों मरीजों की सांसों की डोर टूटती रही और चंद पैसे वालों का आक्सीजन सिलेंडरों पर कब्ज़ा हो गया ।

शरीर की साधना से चेतन की साधना हठयोग है और चेतन मन से शरीर की साधना राजयोग । हठयोग में सर्वांग शरीर की साधना होती है जिसकी पहली शर्त है शरीर पहले पूर्ण स्वस्थ हो , जो कि आज बहुत मुश्किल है । ऋषि मुनि के जमाने गए , प्राकृतिक जीवन अस्त व्यस्त और वातावरण आज विषाक्त हो चुका है । आज हठयोग मुश्किल है ऐसे में साधना के राजयोग ने हठयोग की जगह ले ली है ।

“काहे का ताना काहे की भरनी कौन तार से बीनी चदरिया,
इंगला-पिंगला ताना भरनी ,सुषमन तार से बीनी चदरिया “।

हम सांस का संबंध फेफड़े ,और खून में ऑक्सीजन की मात्रा नियंत्रित करने तक मानते हैं ,पर शरीर मे सांस अध्यात्म ऊर्जा का भी स्रोत है । कबीर कहते हैं सांस और उससे मिली ऊर्जा प्रवाह प्रभाव शरीर में सुषुम्ना इड़ा और पिंगला नाड़ियों के भीतर भी होती हैं । कबीर का राज योग बताता है – जब हम सांस लेते हैं तब कुछ देर सांस बाएं नथुने से चलती है ,कुछ देर दाएं से । जब बाएं से सांस चलती है तब शरीर की अवस्था भिन्न होती है और जब दाएं से चलती है तब कुछ और ।

कबीर और दूसरे योगियों ने इन दोनों सांसों का जड़ उसी इड़ा और पिंगला नाड़ियों से जोड़ा है । अलग अलग योगियों ने इन्हें ही चन्द्र और सूर्य नाड़ी कहा है , किसी ने चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर ।

मनुष्य के इन्ही स्वरों से उसके स्वास्थ्य और जीवन की प्रकृति स्वभाव और इसमे परिवर्तन से स्वास्थ्य को जोड़ा है । खुशी,उदासी, जागरण -निद्रा ,सुबह-शाम , पुरुष-स्त्री के स्वभाव में अंतर , बहुत सारे रहस्य हैं और इन रहस्यों का वैज्ञानिक अध्ययन भी होता रहा है । योगियों की बातें योगी जाने..

पर चाहे योग से जानें, आयुर्वेद से जानें या विज्ञान की चिकित्सा शास्त्र से जानें एक बात तय है कि ..
हर व्यक्ति ईश्वर की एक अनूठी संरचना है । हर व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न है , शरीर का एक एक रोआं भिन्न है । परमात्मा ने बहुत झीनी-झीनी चादर बीनी है । वह कभी दोहराता नही । हमारे जैसा फिर कोई दूसरा नही बनाएगा । हम धन्य हैं ।हम अनूठे हैं । इस अवसर को..

इसलिए हम अपने आप को पहचानें और प्रकृति के साथ अपना स्वर जोड़ लें

“खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब सांसों की सांस में।।”

श्वांस अगर ठीक चलती है तो नाभि के दो इंच नीचे एक बिंदु से स्वांस का सम्बंध होता है । जितना ऊपर आते जाएंगे इसका मतलब है आप तनाव में हैं । उस बिंदु से जितने नीचे से श्वांस का केन्द्र होगा उतनी विश्राम की स्थिति होगी । हालांकि श्वांस के निगरानी की यह पद्धति जापानी है पर भारत के घरों में दादी नानी सालों से दुधमुँहे बच्चों के स्वास्थ्य का हिसाब किताब नाभि के पास श्वांस के इसी केंद्र पर हो रही प्रतिक्रिया को देख परख कर लगाते हैं ।

केंद्र अगर नाभि से ऊपर आने लगे तो बुजुर्ग कहते हैं बच्चा ‘पलइ’ उपर खींच रहा है जल्दी वैद्य को बुलाओ । यह चिकित्सा जगत को कोई दावा नही मेरा निजी अनुभव है ।

जब मैं भी कभी शांत स्थिर रहता हूँ तब मुझे भी ऐसी ही गहरी सांस की अनुभूति होती है । मैं 18 साल की उम्र होते तक नाक के बजाय मुंह से ही स्वांस लेता था । विज्ञान का विद्यार्थी रहा हर किताब में नाक और फेफड़े का श्वसन तंत्र का विज्ञान पढ़ता था ।

मैं अपने बायोलॉजी के शिक्षक को बताता तो कहते तुम गलत करते हो । मैं क्या करता । मैं पेट और मुंह से ही श्वांस लेता था ।वो कहते बधीरे धीरे आदत छूट जाएगी , पेट से सांस मत लिया करो । यह सच है कि श्वांस फेफड़े से ही मैं भी लेता हूँ लेकिन मेरा केंद्र नाभि पर था ।

चिकित्सा विज्ञान और बड़े बुजुर्ग भी यही कहता है कि सांस सीने फुलाकर ही लो । क्योंकि छाती 56 इंच का होना चाहिए । शायद मुझे छाती चौड़ा करने का पागलपन कभी नही रहा । आज भी आप मेरे नाक बंद कर दो मैं लगातार मुंह से सांस ले सकता हूँ । अभी भी सांस लेने पर छाती नही मेरा पेट फूलता और सिकुड़ता है । मेरे कैमरामैन होने में इसका मुझे बड़ा फायदा होता है । कन्धा शैक नही करता ।

“कोरोना”के इस दौर ने एक एक सांसों का भुगतान करवा दिया । अमीर, चाहे दूसरे आम लोगों की तरह आक्सीजन की कतार में न लगे हों , लेकिन एक एक सांस के मोल ने सब की जेब जरूर ढीली कर दी।

यह समय फिर आ सकता है जिस तरह से प्रकृति का दोहन ,रेडियोधर्मी प्रयोग, पेड़ पौधों की कटाई , ओजोन की परतों में परिवर्तन , समुद्र के जल में लगातार मिलते तेल तथा प्रदूषण फैलाने वाले दूसरे रसायन और उससे कम होती बारिशें , यह सब विनाश के साधन कहीं नही रुके , तो अंदेशा है कि प्राकृतिक हवा में आक्सीजन की मात्रा एक दिन क्षीण और खत्म हो जाएगी और कोई आश्चर्य नही कि आक्सीजन के सिलेंडर और छोटे छोटे केन बोतलबंद पानी की तरह दुकानों में लटकाकर बेचे जाएंगे ।

व्यक्ति का पाकिट तय करेगा कि तुम कितना और कैसे जियोगे । एक एक सांस मोल लिया जाएगा । यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि यदि हम पूर्णता से सांस नही लेंगे तो पूर्णता से कैसे जी पाएंगे ।
सांस ही प्राण है इसलिए हमने आक्सीजन को प्राणवायु कहा है । उस प्राणवायु को बचाने का जतन कर लो जो करते बन सके…

आज बस इतना ही…!

(लेखक न्यूज़ चैनल में सीनियर वीडियो जर्नलिस्ट हैं)

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