रिकॉर्ड विफलता का बरस : अनलॉक होती महामारी
आलेख : बादल सरोज,
मौतों के बीच जश्न मनाना भी इवेंट मैनेजमेंट का एक हिस्सा है, यह बात अगर किसी को एक बार और देखनी थी, तो वह हसरत भी मोदी-2 के उत्सव ने उन्हें दिखा दी होगी।
अब तक सरकारें निर्माण और सृजन, हासिलों और उपलब्धियों का लेखाजोखा लेकर आया करती थीं; मोदी-2 विनाश और विघटन के ढेर पर खड़े होकर महोत्सव मनाने की ढीठ बाजीगरी है। सार्वजनिक उद्यमों की नीलामी, श्रम कानूनों की समाप्ति, खेत और खलिहान तक देसी-विदेशी कारपोरेट को पहुंचा देने की आत्मघाती समझदारी, शिक्षा के अक्षर अक्षर मिटा देने और विश्वविद्यालयों सहित शिक्षण संस्थाओं की ईंट से ईंट बजा देने के मंसूबो को तीव्रतम गति से लागू करने की सालगिरह मनाने के लिए सारे माध्यम और मीडिया चाकर काम पर लगा दिए गए हैं। यह सिर्फ आजादी के बाद की सत्तर-बहत्तर वर्षों के हासिल को घटाने तक की बात नहीं है – यह मेहनतकशों के सौ-डेढ़ सौ वर्षों के संग्राम से हुए को अनहुआ करने का कुकर्म है।
मूल रूप से अन्धकार के उस ब्लैकहोल को रेडियोएक्टिव करने की कोशिश है, जिसे इतिहास और समाज विज्ञान में मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है। वही मनुस्मृति, जिसके होने के उदाहरण के साथ आरएसएस ने संविधान सभा के गठन पर सवाल खड़े किये थे, नए संविधान के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाया था। मोदी-2 की पहली सालगिरह इसी फिसलन भरे रास्ते पर भारत को धकेलने की सालगिरह है।
कोरोना लॉकडाउन में चार-साढ़े चार करोड़ प्रवासियों की मजबूरन घर वापसी समूची मानव जाति के इतिहास की एक दारुणकथा बन गयी – उससे क्या? बजाय रुकने या कम होने के महामारी कुलांचे मार कर रफ़्तार पकड़ने लगी – उससे क्या? न जाने कितने सैकड़ां नागरिक दुर्घटनाओं में, श्रमिक रेलों में, गाँवों और शहर की बस्तियों में भूख से मर गए – उससे क्या? लॉकडाउन ने स्त्री के पहले से ही प्रताड़ित जीवन को नर्क बनाकर रख दिया – उससे क्या?
खेती चौपट हो गयी – उससे क्या? 12 से 14 करोड़ काम छिनने और ताजे भविष्य में काम मिलने की दूर-दूर तक संभावना न दिखने की वजह से ठगे से रह गए – उससे क्या? इतिहास के निर्ममतम शासकों ने भी अपने देश की जनता और खुद देश के साथ जो नहीं किया, उससे भी आगे की निर्दयता के बजबजाते यथार्थ के बावजूद जश्न मनाने के लिए एक ख़ास तरह की हिंस्र मानसिकता की दरकार होती है; और यही मोदी-2 की यूएसपी है, लाक्षणिक विशेषता है।
इस वर्ष में आमतौर से और कोविद-19 के बहाने खासतौर से संवैधानिक जनतंत्र के लॉकडाउन का जो सिलिसला शुरू हुआ, वह स्तब्धकारी तेजी से गति पकड़ रहा है। व्यवसायियों के लिए जाना जाने वाला मीडिया अब खुद व्यवसाय बन गया है।
अपनी कमाई के लिए देश की एकता के ताने-बाने को उधेड़ने में लगा है। सर्वोच्च न्यायपालिका अपने चुनिंदापन से सबको चौंकाने के बाद अब न्याय की मूर्त्ति कही जाने वाली प्रतिमा की तरह आँखों पर पट्टी ही नहीं, कानों में भी रुई ठूंसे दिखाई दे रही है।
संक्रमण भले नहीं रुका, मगर उसके बहाने तानाशाही की जकड़न मजबूत करने की कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। संसद ठप्प पड़ी है – सड़कें कर्फ्यू से लादी जा रही हैं – सोचने विचारने तथा असहमति जताने वालों से जेलें भरी जा रही हैं और अब आरोग्य एप्प की अनिवार्यता थोप कर हर नागरिक की निजता छीनी जा रही है।
भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन में यह गंभीरतम समय है। इसलिए कि जनता से उसके जन और मनुष्य दोनों होने के अधिकार छीने जाने की तैयारी है – इसलिए भी कि इसके बाद मध्ययुग की उस क्रूरता की बहाली की भी तैयारी है, जिसे मनुस्मृति में संहिताबद्ध किया गया है – जिसने भारतीय समाज से डेढ़ हजार वर्षों तक उसकी सृजनात्मकता छीने रखी थी। लिहाजा संकट तात्कालिक नहीं, दूरगामी और बुनियादी भी है। दाँव पर जीवन भी है और उसे बचाने के लिए की जा सकने वाली जद्दोजहद भी।
अनलॉक-1 अगर मोदी सरकार और उनकी हिन्दुत्वी कारपोरेट ब्रिगेड के लिए अम्बानी और अमरीका के मुनाफा से फूले विभाजन और अलोकतान्त्रिकता के गुब्बारे को और ऊंचा करने का मौक़ा है –
प्रधानमंत्री की भाषा में “महामारी एक अवसर है”, तो देश के मेहनतक़शों और लोकतंत्र-हिमायती शक्तियों को भी अनलॉक करने का समय है; जीवन-मरण जैसी एक निर्णायक संभावना, जिसे राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक हर मोर्चे पर लड़कर ही हासिल किया जा सकता है।
मजदूर-किसानों के शानदार प्रतिरोध के बाद का गुजरा सप्ताह पहले जनवादी महिला समिति की अगुआई में महिलाओं, उनके बाद खेत मजदूरों की देश भर में हुयी कार्यवाहियों का सप्ताह ही नहीं रहा – इसी दौरान राजनीतिक मंच पर भी एका बढ़ा है। ऐसी ही मोर्चेबंदी संविधान और लोकतंत्र को हड़पने को आतुर अंधेरों की एंटी-डोज हो सकती है।
(लेखक भोपाल से प्रकाशित पाक्षिक “लोकजतन” के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)