विचार

2006 बनाम 2020 : हालात कल भी वही थे- आज भी वही !

आलेख-होमेन्द्र देशमुख भोपाल,🖍️🖍️


“मीडिया फैशन नही- पैशन का पेशा”

मप्र के बैतूल के पास मुलताई के एक कुंड से निकलकर खम्भात की खाड़ी तक का सफर तय करने वाली ताप्ती नदी के जलग्रहण क्षेत्र में पिछले 36 घण्टों से रुक रुक कर लेकिन भारी बारिश हो रही थी । पिछली रात यही बारिश बैतूल से भोपाल के आसमान तक आ कर राजधानी को भी सराबोर कर रही थी ।
इसी बारिश के बीच 6 अगस्त 2006 को पिछली रात की ट्रेन से मैं कैमेरामैन होमेन्द्र देशमुख और मेरे वरिष्ठ संवाददाता सूरत में सम्भावित बाढ़ का कवरेज करने रेल मार्ग से निकले थे ।

“ताप्ती” नदी मप्र की प्रमुख नदियों में गिनी जाती है । मुलताई से निकल कर बुरहानपुर पहुचते तक पाट चौड़ा हो जाता है खंडवा खरगोन के पीछे से महाराष्ट्र हो कर गुजरात की सीमा में प्रवेश करते तक यह नर्मदा के बाद दक्षिण गुजरात की दूसरी सबसे बड़ी नदी *’तापी‘* बन जाती है ।

गुजरात का प्रमुख व्यावसायिक महानगर डायमंड सिटी सूरत इसी नदी के पानी से अपनी प्यास बुझाता है । अपने उद्गम से समागम तक के जीवन की लगभग 725 किमी की यात्रा पूरी कर ताप्ती नदी , सूरत के पास डुमस बीच पर अरब सागर से मिलने से महज 100 किमी पहले बने विशाल उकाई डैम के अथाह जल राशि के रूप में लगभग अपना अस्तीत्व धरती मां को समर्पित कर अपना सारा नीर लुटा देती है ।

आसपास की खेती और वहां के कपड़ा उद्योग और व्यवसाय तापी के जलस्तर के साथ चढ़ता और उतरता है । उसके बाद इस विशाल बांध के बंद दरवाजों से चंद जलराशि की मोहताज तापी ,सागर से मिलन को आतुर गुजरात के हीरों और अमीरों की नगरी सूरत शहर के बीच से बड़े धीर गम्भीर अंदाज में गुजरती है ।

सूरत शहर को दो भागों में बांटती यह नदी सूरत की गंगा “तापी” मां भी कहलाती है । समुद्र तट यहां से महज बारह किमी दूर है इसलिए ज्वारभाटे के लहरों वाली झूले में यह गंगा अपने आप को रमाए रहती है । ये कहें कि कभी कभी तापी सागर में तो कभी सागर तापी में समाकर सूरत शहर को अद्भुत अनुभव और नजारों का नजराना देती है तो यह आश्चर्य भी नही ।

अपने बड़े बड़े अट्टालिकाओं ,गगनचुंबी अपार्टमेंट्स , पंचतारा होटलें , भव्य- खूबसूरत स्वामी नारायण मंदिर, सर्किट हाउस, ऑफिसर्स क्लब और केंद्र तथा राज्य शासन की सरकारी इमारतें तापी का रिवर व्यू पाकर धन्य हो जाते हैं । अपनी शाम की रंगीनियों में डूबे कपल्स और खुशनुमा लाइफ स्टाइल में झूमता आधा शहर रिवर फ्रंट पर बने पाथवे, चौपाटी और खूबसूरत पुलों पर उमड़ जाता है ।

बड़ौदा से निकलकर भरूच के नर्मदा पुल से गुजरने वाली हमारी यह ट्रेन, आखिरी ट्रेन थी, क्योंकि हमारे निकलने के बाद मांई ,अपने वेग से पटरी डुबाने तैयार जो बैठी थीं । कहीं डूबते कहीं दिखते पटरियों से किसी तरह हमारी ट्रेन जैसे तैसे सूरत पहुँची फिर तो बड़ौदा से सूरत और मुंबई का रेल संपर्क चार पांच दिन के लिए बंद ही हो गया ।

सुबह 9 बजे सूरत स्टेशन का पोर्च पार्किंग रिजर्वेशन काउंटर डूब चुके थे । हम शहर में कहीं जाते उससे पहले शहर उल्टे स्टेशन पर आ चुका था । पास में तापी नदी का ऊंचा रेलवे पुल था इसलिए सूरत स्टेशन का प्लेटफार्म काफी ऊंचा बना है ।

नरम धूप ! बारिश का नामोनिशान नही पर रेलवे स्टेशन के आसपास की कालोनी डूब चुकी थी इसलिए उन कालोनियों के कई लोग अपने कीमती और जरूरी सामानों के साथ उल्टे प्लेटफार्मों में आ जमे थे । अहमदाबाद से पिछली रात पहुचे हमारे साथी ब्यूरो टीम अपनी ओबी वैन के साथ खुद यहीं पनाह लिए हुए थे । उनसे बात हो जाने पर हम भी अपने कपड़ों का सूटकेस वहीं टिकाकर काम पर लग गए । पूरा दिन निकल गया । जहां कैमरा घूमे वहीं एक नई स्टोरी ।

हमारे खुद के लिए सबसे नई स्टोरी और अचंभे की बात थी कि पिछले कई दिनों से गुजरात में मानसून तो दूर प्री-मानसून तक की भी बारिश भी ठीक से नही हुई थी और जिंदादिल गुजरातियों का डायमंड सिटी सूरत का आधे से ज्यादा हिस्सा बाढ़ में डूबा था ।

उसका कारण था वही तापी ,सूरत की गंगा ..! जो मप्र के बैतूल और महाराष्ट्र मे हो रहे सीजन की जोरदार बारिश के पानी को सैलाब बनाकर सूरत के पास बने उकाई बांध में भर रही थी , और इतना भर रही थी कि उस बांध को टूटने से बचाने तापी पर लाखों क्यूसेक पानी छोड़ना पड़ रहा था । नतीजा था ज्वार के उल्टे प्रवाह से तापी की विशाल जलधारा सागर में जाने के बजाय शहर को जलमग्न करने किनारा छोड़ चुकी थी ।

सूरत शहर ने ऐसी तबाही शायद कभी सोचा नही था । पिछले सौ सालों में कई बाढ़ यहाँ आई थी लेकिन इतना भयावह कभी नही था । महंगी गाड़ियां ,कपड़ों का उद्योग ,हीरे तराशने के कारखाने सब गले-गले तक डूब चुके थे ।

स्कूल ,सिनेमा ,सुपर बाजार सब बंद । बाढ़ की धारा , बहा कुछ नही रही थी ,पर डुबा सब कुछ दे रही थी । बह रहे थे तो शहर के नाले और नालियां वह भी उल्टे । उसी उल्टे बहाव ने शहर की सड़कें होटल कालोनी मंदिर मस्जिद मिलें , इंसान और जानवर सब को डुबा दिया था । घर की गंदगी बहा ले जाने वाली सीवेज की लाइनों से उल्टे घरों के अंदर गंदा पानी आने लगा था । टीवी फ्रिज फर्नीचर राशन, बस ,कारें और मोटरसाइकल , टपरे , चौपाटियाँ, थाने ,कचहरी , सब पानी मे तैरने लगे थे ।

पहला दिन सूरत स्टेशन के उस ऊंचे टीलेनुमा जगह पर राहत के चाय बिस्किट और सरकारी खाने के पैकेट के भरोसे काम करते करते निकल गया । रात 10 बजे तक पानी उतरने का नाम नही । फिर पहले से बुक किये होटल में पहुचना अब मुश्किल था ।

राहत के नाव दिन में स्टेशन से कई यात्रियों को ले जा चुके थे लेकिन एक किमी दूर होटल के लिए हम सिर पर अपने सूटकेस लादे पैदल ही निकल पड़े । कहीं घुटने कहीं कमर तक के पानी में, डिवाइडर पर लगे बिजली के खम्बों के अंदाजे से गुजरते किसी तरह हम अपने होटल पहुचे ।

सारे शहर के साथ होटल की लाइट भी बंद थी । तरक्की का विज्ञान कभी कभी महंगा भी पड़ जाता है । पूरे शहर में बिजली के तार अंडरग्राउंड थे और पानी में डूब जाने के कारण कहीं से भी करंट फैलने का खतरा था इसलिए सूरत के अधिकतर हिस्सों में लाइट बंद कर दी गई थी ।

हमारे आठ मंजिले होटल का बेसमेंट और रिसेप्शन पानी मे डूबा था । उसके साथ यहां का जनरेटर और बिजली कंट्रोल पैनल भी डूब चुका था । दिन भर बाढ़ का थका देने वाला कवरेज ,पानी मे चलने की थकावट से चूर ,होटल के छठवीं मंजिल के अपने आलीशान कमरे में बड़ी मुश्किल से सीढ़ियों के सहारे मोमबत्ती लेकर चढ़ पाए । थकावट तो थी , पर होटल के इमरजेंसी एग्जिट की वो घुमावदार सीढ़ियां कही दीप जले कही दिल का वह डरावना गीत भी याद आ गया ।

” बिन बिजली सब सून’..!

जब बिजली नही तो पानी भी नही । बाहर पानी में डूबा शहर लेकिन होटल में मुँह धोने तक का पानी नही । बाथरूम के लिए वेटर ने नीचे बाढ़ के पानी से भरकर बमुश्किल एक बाल्टी पानी ऊपर लाकर दिया । अब उससे चाहे जो काम कर लो…!

अब क्या सोना और क्या जागना ! बस गिर गए बिस्तर पर.. होश से बेहोशी की आगोश में जाने ही वाले थे कि ब्रजेश जी का फोन बज गया और सुबह के बुलेटिन के लिए रात 12 बजे बाढ़ और सूरत रेल्वे स्टेशन की हालत पर एक ताजी रिपोर्ट देने का फरमान आ गया..

आज पिछले जीवन के सारे कर्म याद करने और कोसने का समय आ गया था । न जाने कौन से करम किये थे जो इस जनम में मीडियाकर्मी बन गए । कई बड़े बड़े कवरेज ,भूखे -प्यासे , धूप बारिश , सुनामी ,बाढ़ और सूखे में किये थे । लेकिन ऐसी झल्लाहट कभी नही आई थी ।

“मीडिया” का रास्ता हमने अपने शौक से चुना था । बड़ा चैलेंज लेना था । चमत्कार करना था ,समाज को सर्विस देनी थी । क्योंकि हम चौथा स्तम्भ के हिस्सा जो बन गए थे । फिक्शन और धारावाहिकों के कैमरामैन और वीडियो एडिटर का अच्छा खासा अनुभव था ।

मुँह से पा.. निकलते ही दो-दो स्पॉट बॉय पानी मय चाय लेकर दौड़ आते थे । फोकस-पुलर और कैमरे के स्टैंड उठाने के लिए दो तीन सहायक एक पांव पर खड़े रहते थे । बड़- बड़ी लोकल हीरोइनें एक क्लोज-अप शॉट के लिए सर-सर कह कर कातिलाना नजरें फेंका करती थीं ।

पर अपन ‘उस टाइप’ के आदमी नही थे ,सो वहां से निकलने की छटपटाहट थी । और फिर सन 2000 शुरू होते होते मुझे दो समोसा किसी टपरे से खाकर दिन भर न्यूज़ चैनलों के लिए काम कर शाम के न्यूज बुलेटिन में अपना शूट किया शॉट देख कर सारा रात सुकून की नींद आने लगी ।

फिक्शन शूटिंग के ग्लैमर और फैशन को छोड़कर मैंने पैशन को चुना । और उन्ही दिनों रफ्तार पकड़ रही निजी न्यूज चैनलों यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कैमेरामैन का काम सिद्दत से शुरू कर दिया ।

सारी बातें दिमाग मे आयी और लहर बन कर याद दिला गई । हम रात 11 बजे उसी पानी से भरे सड़कों पर फिर उतर गए और रात 1 बजे तक होटल लौटकर बेड पर पसर गए ।

सुबह ,बाहर निकल कर देखा लिखा था –
‘होटल सरोवर पोर्टिको’..!

देश का बड़ा होटल चैन था । लेकिन बाढ़ ने इस चार सितारा होटल में सब पानी फेरा हुआ था । सुबह बेसमेंट के बाढ़ में से दो बाल्टी भर कर फिर पानी आया और हम फ्रेश होकर काम पर निकल गए ।
इसी तरह लगातार तीसरा फिर चौथा दिन अलग अलग जगहों मुहल्लों अस्पतालों शोरूम्स , मंदिर मस्जिदों राहत शिविरों में जा-जाकर काम करते रहे । बाढ़, पास में समुद्र के ज्वार भाटे के कारण कभी चढ़ता कभी उतरता । खाने पीने की ज्यादा चिंता नही थी । गुजराती हर फिक्र को धुएं मे उड़ाते दिखते ।

कहीं से कोई अपनी कार और कोई स्कूटर लेकर निकल रहे होते तो अपनी गाड़ी में ही बिठाकर नइ जगह ले जाकर बाढ़ से हो रही वहां की तकलीफें बताते और तो और वापस निकलते निकलते ढोकला खमण खमणी और फाफड़ा भी खिला देते । गुजराती समाज मे एक दूसरे का सहयोग और टीम वर्क भी दिखता ।

सूरत की यह ऐसी बाढ़ थी जिसमे आसमान से बून्द नही गिरा था ..

पर मुहल्लों कालोनियों और आलीशान कवर्ड कैंपसों में नाव चल रहे थे । पानी से घिरे फ्लाई ओवर्स पर खोमचे वाले आकर खड़े हो जाते और बाढ़ और मीडिया का लाइव देखने वालों का मेला लग जाता । गुजरातियों का पिकनिक जैसा माहौल बन जाता । तकलीफें बताते लेकिन उन तकलीफों से परेशान नही दिखते थे ।

असल तकलीफ तो तब होनी थी , जब चार दिन बाद बाढ़ का पानी शहर से उतरने लगा । तीन चार दिनों से डूबे घर सामान शो रूम गोदामों से सड़ांध और कीचड़ अब नाक में दम करने लगा । अब सूरत महानगर पालिका और प्रसाशन की असली परीक्षा थी ।

इंसान और मवेशियों की लाशें भी निकलने लगीं । सिविल अस्पताल के मुर्दाघर में हमने 30 लाशों के बीच काम किया । पहचान में नही आते थे शव महिला का है या पुरुष का बच्चे का था या बूढ़े का ,सब को काले आइल से पोत कर अपनो के आने की उम्मीद में प्रिजर्व कर रख दिया गया था । अब तक सौ से ज्यादा लाशें निकल आयी थीं जिसमे से ये कुछ लाशें लावारिस थीं ।

प्रशासन को मौत के आंकड़े पानी उतरने के साथ बढ़ने का अंदेशा था । सड़को पर जमे कीचड़ हटाने के लिए न इतने संसाधन थे न आदमी । ज्यादातर स्टाफ और मजदूर खुद अपने घरों को बचाने रुके थे या फिर बाढ़ में भूखे प्यासे घिरे हुए थे । राशन और पीने के पानी की समस्या थी ही ऊपर से महामारी का डर ।

*आज* कोरोना के लॉकडाउन की तरह लोगों को सूरत में बाढ़ का पानी उतरते उतरते अपने घरों से निकलने की मनाही की गई थी । पुलिस से छुप छुप कर लोग अंदरूनी गलियों से बाढ़ भ्रमण और पर्यटन और राशन दूध के लिए सड़क पर निकल जाते ।

हर तरफ डूब के अवशेषों की सड़ांध थी , ऐसे में महामारी का खतरा उन इलाकों में मंडराने लगा था । बिल्कुल आज के कोरोना की ही तरह कुछ दुकानों को खुलने की अनुमति दी जाती । वहां लोगों की भीड़ लग जाती तो पुलिस फिर उसे बंद करवा देती ।

एक जगह बिना मास्क के इकट्ठा होने पर महामारी का खतरा और भी ज्यादा मुह चिढ़ाता । पॉश हवेली के लोग दूध और ब्रेड के लिए लॉकडाउन तोड़ने पर आमादा थे । लोगों का नाक मुँह पर बिना कपड़ा बांधे उन इलाकों से गुजरना मुश्किल होने लगा ,जहां जल भराव के बाद पानी उतरने लगा था ।

राशन की दुकान खुला तो आज के सोशल डिस्टेन्स की तरह गोला बना कर लोगों को संक्रमण से दूर रखने की कोशिशें भी की गईं । अब तक बाढ़ को पिकनिक जैसा एन्जॉय करते अप्रभावित लोग मीडिया को खींच खींच कर बदबू और कीचड़ वाले इलाकों में ले जा कर अपनी समस्या दिखाना चाहते थे ।

भीगे घरों से निकल कर जनता मीडिया से उम्मीद करने लगी कि बस एक बार हमारा घर देखो । अब वे गुस्से में आने लगे । प्रशासन के बजाय मीडिया पर गुस्सा उतरने लगा । गलियों में मीडिया पर हमले होने लगे । अब तक सड़कों पर नौका सैर करने वाली अहमदाबाद और हमारी तरह देश भर से यहां पहुचे मीडिया के प्रतिनिधि होटलों में घुसे रहने को मजबूर होने लगे । ओबी वैन पर हमले होने लगे और हम सब अंततः पुलिस की सुरक्षा में सिमट कर एक ही होटल के पोर्च की छत पर इकट्ठा होकर अपने-अपने लाइव करने लगे । मीडिया का ‘इवेंट’ बाढ़ उतरने के साथ साथ ख़तम होने को था । बाढ़ की हालात बदतर से सामान्य होने लगा था ।

यही हाल टीवी चैनल बताने लगे तो कीचड़ से जूझ रही जनता भड़क कर मीडिया पर आक्रोश उतारने लगी । अब परेशानी ही दूसरी थी, एक अलग ही समस्या पैदा हो रही थी । ड्राइंगरूम के 40 इंच एलसीडी टीवी पर मरे मवेशी और नाक बंद करते लोग ,गंदगी और कीचड़ की खबरें दिखाना अब समझदारी भी नही थी ।

हर पीड़ित अपना बदबूदार घर और अपना नुकसान दिखाना चाहता था पर बात प्रशासन के सीमित पहुच और राहत कार्य के दबाव की थी वह मीडिया बराबर कर रही थी । मीडिया से जनता की अपेक्षा और मीडिया की मजबूरी अब क्लैश पैदा कर रही थी ।

होटल पर पत्थरबाजियां होने लगी और होटल मैनेजमेंट ने हम सब मीडिया वालों को होटल खाली करने का भी अल्टीमेटम दे दिया ।
चार दिनों से बंद हवाई और रेल यातायात कुछ कुछ शुरू होने लगा और हमने भी सप्ताह भर बाद स्थानीय प्रतिनिधियों के हवाले शहर कर , वापस भोपाल की राह पकड़ ली ।

भोपाल पहुचे तब पता चला कि जिस छः अगस्त की रात हम भोपाल से सूरत के लिए निकले थे , उसी रात भर भोपाल में हुई मूसलाधार बारिश ने यहां भी पिछले पैंतालीस सालों का रिकार्ड तोड़ा था । मेरे स्कूटर के टैंक में पेट्रोल की जगह पानी भरा था ।

शहर के सकरे और सिमटे नालों ने भोपाल के निचले इलाकों में खूब तबाही मचाई थी । इन इलाकों के दुकान मकान कारें यहां भी डूब चुके थे । गुजरात के लोगों की समस्या तकलीफें टेलीविजन चैनलों पर देख रहे हमारे परिवार वालों ने हमे अपने और शहर की मुसीबतों का भान भी नही होने दिया था ।

*बात* विपरीत परिस्थितियों में मीडिया के कर्तव्यों और मीडिया के प्रति समाज या व्यवस्था के आचरण की हो रही है । सूरत की बाढ़ और मीडिया कवरेज का अनुभव कोई अजूबा नही है । यह तो मीडिया के लिए हर जगह अपेक्षित होता है । काम तो मीडिया को अपनी उसी क्षमता , कर्तव्य और जिम्मेदारी से करना ही होगा । चाहे बाढ़ की महामारी हो या कोरोना की..!

आज यह प्रसंग और उदाहरण इसलिए प्रासंगिक है कि सूरत में भी महामारी का खतरा और ऐसा ही लॉकडाउन था । एक पैकेट दूध के लिए कई मीटर की लाइनें थीं । कोरोना काल मे ऐसी घटनाएं बरबस याद आ जाती हैं ।

बात एक मीडिया कर्मी होने की है तो मीडिया के लोग और उनके परिवार भी इस महामारी से प्रभावित हो रहे हैं । इसमे आश्चर्य नही । पीड़ित या प्रभावित पक्ष बहुत जल्दी परसेप्शन बनाने लगता है कि मीडिया ये और मीडिया वो..

पर जरा सोचिए ,
मीडिया को लाख गरेरिये वह अपना काम जिम्मेदारी से करता रहता है ,करता रहेगा..

आज बस इतना ही..!

(लेखक न्यूज़ चैनल में सीनियर वीडियो जर्नलिस्ट हैं)

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