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कंगना के हाथों में ये किताब और बनी वो फिर सुर्खियों में

मनोरंजन(खबर वारियर)- भारतीय हिंदी फिल्मों की नायिका कंगना रनौत अपने कैरियर की शुरूआत से ही चर्चा में बनी रही। लेकिन पिछले कुछ माह से वे ज्यादा चर्चित रहीं हैं। उनके साथ मुंबई में उनके घर और ऑफिस पर बीएमसी की तोड़फोड़ हो या सुशांत की मौत का मामला हो, ड्रग्स रैकेट का मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में भंडाफोड़ हो या फिर महाराष्ट्र की शिवसेना सरकार को दो टूक कहने की बात हो।

वे बिंदास होकर लक्ष्मी बाई की भूमिका में नज़र आयी। राजनीति में उन्हें बीजेपी और संघ का समर्थक माना जाता है और बीजेपी के नेता भी उनके समर्थन में अपना बयान देते आये हैं। कंगना ने एक फोटो टि्वटर पर शेयर किया है।

https://twitter.com/Kangana_Ra/status/1370410597330812928

इस किताब के कव्हर पेज की लाइन जो इस पुस्तक की हेडलाइन भी है, आरएसएस के उन समर्थकों की ओर ईशारा कर रही है जो कभी संघ की शाखा में शामिल नहीं हुए लेकिन संघी जरूर कहलाये जा रहें हैं। अब कंगना को भी यही कहा जा सकता है। इस पुस्तक का नाम है SANGHI WHO NEVER WENT TO A SHAKHA इसके कव्हर पेज में संघ यानी आरएसएस की वेशभूषा में स्वयंसेवकों के ध्वजप्रणाम की मुद्रा में कैरिकेचर बने हैं। इस किताब के लेखक राहुल रौशन हैं। जिन्होंने कंगना को इसकी कॉपी भेजी है।

SANGHI WHO NEVER WENT TO A SHAKHA by [Rahul Roushan]

राहुल रौशन एक पत्रकार हैं और opindia.com न्यूज वेबसाइट जिसे बड़ी संख्या में लोग देखते हैं उसके सीईओ हैं। राहुल कभी “पागल पत्रकार” के छ्दम नाम से 2009-2010 के आसपास फेक न्यूज भी डालते रहें हैं। तब यह छद्म नाम प्रसिद्ध था। यह किताब अमेजन पर उपलब्ध है। इस किताब के कंटेंट और राहुल के बारे में कुछ जानकारियां इस तरह की हैं –

यह एक ऐसे व्यक्ति की यात्रा है जो ‘संघी’ शब्द से नफरत करता था, लेकिन एक लेबल के रूप में इसे खुशी से अपना रहा था। राहुल रौशन ने 2009-10 के आसपास पागल पत्रकार ’के रूप में प्रसिद्धि पायी, यह छद्म नाम जो उन्होंने फ़ेकिंग न्यूज़ के लिए लिखते समय इस्तेमाल किया था। इसके बाद उन्हें समाचार व्यंग्य वेबसाइट के संस्थापक-संपादक के रूप में देखा गया, जिसकी राजनीति या विचारधारा में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी।

पहली बार राहुल रौशन को संघी कहा गया, तो उन्हें गहरा दुख हुआ। आखिरकार, उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से गणित में स्नातक की डिग्री ली, नई दिल्ली में आईआईएमसी से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए और स्व-निर्मित मीडिया उद्यमी थे। संघी का शाब्दिक अर्थ है, जो दक्षिणपंथी आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) या उससे जुड़े लोगों का सदस्य है, लेकिन ‘उदारवादी’ शब्द का इस्तेमाल उदारतापूर्वक उन लोगों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, जो अपने राजनीतिक और वैचारिक रुख से अलग हैं, या जो हिंदू धर्म पहनते हैं। उनकी आस्तीन।

इस पुस्तक में विश्लेषण किया गया है कि एक विचारधारा के रूप में हिंदुत्व अब क्यों नहीं है और इस बदलाव के बारे में क्या लाया है।

नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता की अनदेखी करने वाले लोगों द्वारा दशकों से तय किए गए एक देश को अचानक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ‘सांप्रदायिक राजनीति’ से जोड़ क्यों दिया गया?

पुस्तक इसी परिवर्तन की कहानी है। यह एक आत्मकथा नहीं है, हालांकि यह भागों में एक भाग की तरह पढ़ा जा सकता है। यह बौद्धिक निबंधों का संग्रह भी नहीं है। यह कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की पुनरावृत्ति है और उन घटनाओं ने राहुल रौशन और उनके जैसे अनगिनत लोगों की यात्रा को कैसे प्रभावित किया। पुस्तक शिक्षा, मीडिया, प्रौद्योगिकी और जाहिर है, चुनावी राजनीति जैसे कारकों को देखती है, जिन्होंने इस परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह पुस्तक लेखक के कुछ व्यक्तिगत अनुभवों को भी छूती है, मीडिया उद्यमी और पत्रकार दोनों के रूप में।

लेखक के शब्दों में, ‘यह पुस्तक उन पाठकों के लिए विशेष रुचि वाली होगी जो सिर्फ मुझे और पुस्तक को बदनाम करना चाहते हैं, लेकिन मैं वास्तव में आशा करता हूं कि वही लोग इस बात को समझने के लिए पुरजोर प्रयास करेंगे कि भारत और उन सभी संघियों में क्या बदलाव आया जो कभी किसी के पास नहीं गए।

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