विचार

तो बजाओ…”ताली और थाली”-‘दुइ कर जोरिकै बिनती करिकै नाम कै मंगल गावहु रे’

होमेन्द्र देशमुख

खबर वारियर-दुनिया में बहुत तरह के अभिवादन हैं, लेकिन दोनों हाथ को जोड़ कर प्रणाम करने की प्रक्रिया कुछ अन्य एशियाई देश के साथ भारत वर्ष की है। भारत मे हाथ जोड़कर नमस्कार या प्रणाम करने की यह प्रचलित तरीका एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है । इसके पीछे बड़े रहस्य हैं, बड़े प्रतीक हैं।

वैज्ञानिक अनुसंधान कहता है कि मनुष्य का मस्तिष्क दो हिस्सों में बंटा हुआ है। मनुष्य के मस्तिष्क का जो दांया हिस्सा है वह बाएं अंगों, हाथ पैर से जुड़ा है। और मस्तिष्क का जो बांया हिस्सा है वह शरीर के दाएं हाथ पैर से जुड़ा है। उलटा ! बायां दाएं से जुड़ा है, दायां बाएं से जुड़ा है।

आमतौर पर चूंकि हमने दाएं हाथ को महत्त्वपूर्ण बना लिया है और हमारे सारे या अधिकतम क्रिया उसी से करते हैं इसलिए उसे सीधा हाथ और बाएं को उल्टा हाथ कहते हैं । जबकि देखें तो हमारा बायां मस्तिष्क का हिस्सा सक्रिय है जो उल्टा माना जा सकता है ।

बाएं मस्तिष्क के हिस्से के कुछ लक्षण हैं–गणित, तर्क, हिसाब-किताब, बहिर्यात्रा

शायद इसीलिए दायां हाथ महत्वपूर्ण हो गया। क्योंकि बाएं मस्तिष्क को सक्रिय करने के लिए दाएं हाथ को सक्रिय करना जरूरी है वे आपस मे जुड़े हैं। जब दायां हाथ चलता है, तो बायां मस्तिष्क चलता है। जब बायां हाथ चलता है, तो दायां मस्तिष्क चलता है।

दाएं मस्तिष्क के लक्षण हैं–दर्शन ,काव्य , भाव, अनुभूति, प्रेम,जिनका भौतिक जगत में कोई मूल्य नहीं है,

इसीलिए बायां हाथ बेकार और कई कामों के लिए अशुभ कह दिया गया है। बायां हाथ को बेकार कहना मतलब दर्शन को , काव्य को बेकार कर दिया है, प्रेम को बेकार कर दिया है, अनुभूति को, भाव को बेकार कर दिया है। यह बड़ी अजीब बात है । ये दोनों हाथ समान रूप से सक्रिय हो सकते हैं और होने भी चाहिए। जिस नमस्कार को हम भूल रहे थे ,वह वापसी की ओर है । अगर कोई बच्चा बाएं हाथ से लिखता है, तो हम उसके पीछे पड़ जाते हैं कि दाएं से लिखो।

सौ में दस आदमी बाएं हाथ से लिखने वाले पैदा होते हैं। लेकिन सौ में से शायद एकाध ही आदमी मिलेगा जो बाएं से लिखता हो, बाकी नौ को हम गलत कह कह कर, सजा दे-दे कर, स्कूल में मार-पीट कर दाएं हाथ से लिखवाने लगते हैं।

उसके पीछे कारण हैं…..

तथाकथित विकसित समाज तर्क को मूल्य देता है, दर्शन को नही । वह गणित को मूल्य देता है, प्रेम को नहीं। हिसाब-किताब से चलता है, भाव से नहीं। यह तो भाव ,प्रेम और अनुभूति की हत्या ही है । यही वजह है कि सदियों से हमारा मस्तिष्क का आधा हिस्सा बिल्कुल निष्क्रिय होकर पड़ा है।

दोनों हाथों को एक साथ रख कर जोड़ने और नमस्कार में प्रतीक है कि हम इकट्ठे होकर ,दोनों मस्तिष्कों को एक साथ लाकर नमस्कार कर रहे हैं। हमारा तर्क का भी आपसे निवेदन है और हमारा प्रेम का भी आपसे निवेदन है । हमारा गणित भी, हमारा दर्शन भी । हम इकट्ठे होकर समर्पित हैं।

जरा कोशिश करके देखिए..

हाथ जोड़ कर आप जोर से बोल नहीं सकते, अधिक क्रोध नहीं कर सकते और जोर से भाग नहीं सकते।

यह एक ऐसी पद्धति है जिसमें एक मनोवैज्ञानिक दबाव होता है। इस प्रकार नमस्कार और प्रणाम करने से सामने वाला व्यक्ति अपने आप ही विनम्र हो जाता है। किसी को प्रणाम करने के फलस्वरूप आशीर्वाद की प्राप्ति होती है और उसका आध्यामिक विकास होता है।

नमस्कार करते समय दायां हाथ बाएं हाथ से जुड़ता है। शरीर में दाईं ओर ईड़ा और बांईं ओर पिंगला नाड़ी होती है तथा मस्तिष्क पर त्रिकुटि के स्थान पर शुष्मना का होना पाया जाता है। अत: नमस्कार करते समय ईड़ा, पिंगला के पास पहुंचती है तथा सिर श्रृद्धा से झुका हुआ होता है।

सिद्ध हो चुका है हाथ जोड़ने से शरीर के रक्त संचार में प्रवाह आता है। मनुष्य के आधे शरीर में सकारात्मक आयन और आधे में नकारात्मक आयन विद्यमान होते हैं। हाथ जोड़ने पर दोनों आयनों के मिलने से ऊर्जा का प्रवाह होता है। जिससे शरीर में सकारात्मकता का समावेश होता है।

आजकल हम लोग हाथ मिलाते हैं। उसमें एक ही हाथ का काम होता है। वह आधे मस्तिष्क का कृत्य है। उसमें समग्र मनुष्य समाहित नहीं है। दोनों हाथ को जोड़ने में समग्रता है। हम दुई को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। दो नहीं, एक। इसलिए परमात्मा के सामने दोनों हाथ जोड़ते हैं।

हम जहां भी निवेदन-अनुनय करते हैं, वहां दोनों हाथ जोड़ते हैं। जब हम दोनों हाथ जोड़ते हैं तो मस्तिष्क और दोनों हाथों की ऊर्जा वर्तुलाकार हो जाती है, विद्युत वर्तुल में घूमने लगती है। यह मात्र प्रतीकात्मक ही नहीं है, बल्कि यह घटना तो वास्तुतः घटती है।

नमस्कार-संस्कृति और संस्कार..

भारतीय संस्कृति में मंदिर में दर्शन करते समय या किसी सम्माननीय व्यक्ति से मिलने पर हमारे हाथ स्वयं ही नमस्कार मुद्रा में जुड़ जाते हैं। नमस्‍कार हमारी संस्‍कृति का ऐसा हिस्‍सा है, जो सदियों से हमारी जीवनशैली से जुड़ा हुआ है।

नमस्‍कार करना सम्‍मान के साथ आपके संस्‍कार भी दिखाता है। इस भाव का अर्थ है कि लगभग सभी मनुष्‍य के हृदय में एक सी दैवीय चेतना और प्रकाश है जो हृदय च्रक में स्थित होता है। इसलिए नमस्‍कार का अपना एक महत्‍व और उससे कई स्‍वास्‍थ्‍य लाभ भी है।

हमारे हाथ के तंतु मस्तिष्क के तंतुओं से जुड़े होते हैं। नमस्कार करते समय हथेलियों को दबाने से या जोड़कर रखने से हृदयचक्र और आज्ञाचक्र में सक्रियता आती है जिससे जागृति बढ़ती है जिससे मन शांत और चित्त में प्रसन्नता आती है। साथ ही हमारा दिल मजबूत होता है तथा निर्भिकता बढ़ती है।

नमस्कार के आगे जाकर देखें तो इन्ही दो हथेलियों को आपस मे टकराकर ताली बजाते हैं । कुछ खास तरीके से ताली बजाने से कई चौंकाने वाले फायदे होते हैं ।

जब हम किसी के काम से खुश होते हैं या किसी का अभिवादन करना होता है तो अक्सर हम ताली बजाते हैं। ताली बजाकर अपनी खुशी जाहिर करते हैं या अपनी मन की खुशी को बाहर निकालते हैं । ताली बजाने से प्रेशर पॉइंट्स का आसानी से पता लगाया जा सकता है और केवल ताली बजाकर योग और एक्यूप्रेशर थेरेपी के फायदे उठाए जा सकते हैं।

ताली से शरीर को होने वाले फायदे,

ताली कई तरह से हमारे शरीर को फायदे पहुंचाते हैं।डॉ. डोगरा के इजाद किये क्लेपिंग थैरेपी के मुताबिक ताली बजाने से दिल और फेफड़ों से जुड़ी हुई , अस्थमा जैसी समस्याओं में मदद मिलती है और पीठ, गर्दन और जोड़ों के दर्द से आराम मिलता है। वहीं ताली बजाकर गठिया रोग से भी बचा जा सकता है और लो ब्लड प्रेशर के मरीज भी इस थेरेपी की मदद ले सकते हैं।

पाचनतंत्र की समस्याओं में भी क्लैपिंग थेरेपी का इस्तेमाल फायदेमंद साबित होता है। क्लैपिंग थेरेपी से बच्चों की कार्यक्षमता का विकास होता है और उन्हें पढ़ाई में भी सुधार होता है ।

जो बच्चे रोजाना ताली बजाते हैं उन्हें लिखने में भी कम परेशानी होती है और उनसे स्पेलिंग से जुड़ी गलतियां भी कम होती हैं। साथ ही ताली बजाने से बच्चों का दिमाग तेज होता है।

घंटियों का पुरातन इतिहास,

हिंदू धर्म में देवालयों व मंदिरों के बाहर घंटियां या घडिय़ाल पुरातन काल से लगाए जाते हैं। जैन और हिन्दू मंदिर में घंटी लगाने की परंपरा की शुरुआत प्राचीन ऋषियों-मुनियों ने शुरू की थी। इस परंपरा को ही बाद में बौद्ध धर्म और फिर ईसाई धर्म ने अपनाया।

बौद्ध जहां स्तूपों में घंटी, घंटा, समयचक्र आदि लगाते हैं तो वहीं चर्च में भी घंटी और घंटा लगाया जाता है।देवालयों में घंटी और घड़ियाल संध्यावंदन के समय बजाएं जाते हैं। मुख्‍य पांच वंदना में से प्रात: और संध्या वंदन प्रमुख है। वंदन के समय घंटी और घड़ियाल ताल और गति से बजाया जाता है।
स्कंद पुराण के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं । जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) था, घंटी या घड़ियाल की ध्वनि से वही नाद निकलता ,है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है।

वैज्ञानिक तर्क एवम मान्यताएँ..

घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है।
मंदिर में घंटी लगाए जाने के पीछे न सिर्फ धार्मिक कारण है बल्कि वैज्ञानिक कारण भी इनकी आवाज को आधार देते हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि जब घंटी बजाई जाती है तो वातावरण में कंपन पैदा होता है, जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है।

इस कंपन का फायदा यह है कि इसके क्षेत्र में आने वाले सभी जीवाणु, विषाणु और सूक्ष्म जीव आदि नष्ट हो जाते हैं जिससे आसपास का वातावरण शुद्ध हो जाता है।

अत: जिन स्थानों पर घंटी बजने की आवाज नियमित आती है वहां का वातावरण हमेशा शुद्ध और पवित्र बना रहता है। इससे नकारात्मक शक्तियां हटती हैं। नकारात्मकता हटने से समृद्धि और बेहतर स्वास्थ्य के द्वार खुलते हैं।

पहली मान्यता अनुसार घंटी बजाने से मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियों में चेतना जागृत होती है जिसके बाद उनकी पूजा और आराधना अधिक फलदायक और प्रभावशाली बन जाती है।

दूसरा कारण यह कि घंटी की मनमोहक एवं कर्णप्रिय ध्वनि मन-मस्तिष्क को अध्यात्म भाव की ओर ले जाने का सामर्थ्य रखती है। मन घंटी की लय से जुड़कर शांति का अनुभव करता है।

सुबह और शाम जब भी मंदिर में पूजा या आरती होती है तो एक लय और विशेष धुन के साथ घंटियां बजाई जाती हैं जिससे वहां मौजूद लोगों को शांति और दैवीय उपस्थिति की अनुभूति होती है।

अध्यात्म बल्कि स्वास्थ्य को ही ध्यान में रख लें तो घण्टी की आवाज के मन मस्तिष्क शरीर में सकारात्मक बदलाव लाते हैं ।

घण्टियां तो देवालयों में बजाए जाते हैं, जब घर घर और हाथ हाथ को ध्वनि करना हो ,

जब सुर-नाद हो तो पीतल , कांसे की बनी थाली से भी वैसे ही ध्वनि उत्पन्न कर सकारात्मक ऊर्जा पायी जा सकती है । कुछ पुजारी थैलीनुमा घण्टा को लकड़ी के हथौड़े से बजाते हैं ।

स्वास्थ्य और सम्मान की भावना का सकारात्मक और सर्जनात्मक प्रयास थाली बजाकर भी किया जा सकता है ,यह जरूरी नही कि उसका उद्देश्य केवल धार्मिक हो ।

दोनो हाथ जोड़कर , चाहे नमस्कार हो,ताली हो या फिर घंटनाद हो ,यह क्रियाएं अपने ही अंदर की ओर झुकना और झांकना है,

ये जो हमारी नजरों के सामने भौतिक दुनिया, व्यक्ति , विज्ञान ,राजनीति का शोर गुल है उसके ठीक पीछे हम स्वयं भी हैं । जो दिख रहा है वह आभासी संसार हमारा ही बनाया हुआ है । फिर किसके कहने पर करते हैं ,कौन नेता है , चाहे वह हमें पसंद हो या न हो । पर क्या हमारा जीवन इन्ही भौतिक संरचनाओं की गुलाम है ..?

हम जिस आंख से इसे देखते हैं उसके ठीक पीछे देखें तो हम स्वयं भी तो खड़े हैं । आइये आंख बंद करिये और अपने अंदर को झांकें । वैसे ही , जैसे कि किसी कमरे का एक दरवाजा है जब उस दरवाजे पर कमरे की ओर मुंह करके खड़े हों तो प्रवेश और और उसके विपरीत खड़े हो जाएं तो वही दरवाजा बाहर की ओर जाने का रास्ता है । दरवाजा तो एक ही है ,बस दिशा का फर्क है । तो आंख बंद कर अपने अंदर झांकिए स्वयं को देखिए ,अपनी जरूरत प्राथमिकताएं कुछ और पाएंगे ।

बाहर की ओर जो दिख रहा है वह हमारा अहंकार है भीतर की ओर देखिए हमारा सिर स्वतः अपने प्रति सम्मान से झुक जाएगा ।यही झुकना जिस दिन बाहर की ओर होने लगे तब भौतिकता के अहं और अध्यात्म के स्वयं के बीच एक क्रांति हो जाएगी । दोनो हाथ जोड़कर नमस्कार ,प्रणाम, ताली ,नाद एक ऐसी ही सम्भावित क्रांतिकारी घटना का अवसर है ।
तो जब भी मौका मिले, आप भी बजायेंगे न..

*ताली और थाली* ..

दुइ कर जोरिकै बिनती करिकै, नाम कै मंगल गावहु रे।
जगजीवन विनती करि मांगै, कबहुं नहीं बिसरावहु रे।।
आज बस इतना ही…!

संकलन -होमेन्द्र देशमुख

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