मोर गंवई-मोर गांव, तरिया के तीर-पीपर के छांव ! कइसे भुला गए मोला , बंदव तोर कोरा -परंव तोर पांव!

मोर गंवई-मोर गांव ,
तरिया के तीर-पीपर के छांव !
कइसे भुला गए मोला ,
बंदव तोर कोरा -परंव तोर पांव।
बाहिर निकलगें व,बिसरा जाबे का मोला।
महुँ तो तोर लइका-बस एक्के मोर गांव..
बुला ले अपन छांव..!
आलेख-होमेन्द्र देशमुख
रायपुर(खबर वारियर)जब गांवों में बाहर शौच वाला सिस्टम था तब अपना छत्तीसगढ़ अपना सा लगता था । पर अब तो गांव जाओ तो घर ही से निकलने का कोई मौका और बहाना ही नही मिलता ।
गैस ,चिमनी,,सुव्यवस्थित और धुआं मुक्त रसोई । पर कोठार, गाय कोठा की कमी, मिट्टी के घर आंगन ,और उसकी लिपाई ,दूध गर्म करने का खौहा (खाव)’ बड़ी गंजी या कड़ाही में सबके लिए एक बार चाय बनने के कारण समय पर सभी सदस्य को उठने की बाध्यता , फिर शौच के बहाने तरिया ,खेत मेड, पुराने ,बुजुर्ग ,गाँव वासियों से मेलमुलाकात ,पहाटनीन के गोठ, नाउ ठाकुर के गप्प, पाउच कल्चर के पहिले पान ठेला के गप्प ,सब नंदा गए ।
हम तरक्की की राह पर जो चल पड़े । स्वच्छता के कारण ओडीएफ अच्छा है, आज सोचो तो वह भी एक बड़ी उपलब्धि है । पहले कभी इस बेशर्म परंपरा को सोचा नही गया था । अच्छा है , लेकिन अब गांव गांव में शराब, गली गली चिखला और नाली, सैलून, गुटका, चिप्स, कुरकुरे, कोल्ड्रिंक्स ,घर भीतरी चप्पल जूते पहनना । देर तक सोना , अटैच बाथरूम से 10 बजे बाहर निकलना । एसी कूलर की हवा – फ्रिज का पानी, घर भीतरी नहानी आदि विकास के आईना आज हमारे स्वास्थ्य पर भारी पड़ रहे हैं । घुरवा कोठा बारी डबरी नरवा तरिया मुखारी को छोड़ कर किये सब विकास ने हमे दूसरों पर निर्भरता ज्यादा बढ़ा दिया है ।
इस सब मे निम्न मध्यम वर्ग को बहुत बोझ पड़ा है:
गांव का मजदूर तो खेत मे काम के बजाय शहर जाकर मिल और बिल्डिंग की मजदूरी करना पसंद करता है । गांव में दाऊ के बेटा के सहपाठी होने का कारण न वह अब गरीब रहा न शिक्षित । बेचारा बल्कि उसे अब गांव में काम करने में शर्म आती है ।
आज समाचार पत्रों और चैनलों पर पलायन किये ग्रामीण मजदूरों का हुजूम वापसअपने गांव की ओर बढ़ते देखा । वह भी जाकर वहां खुश नही है । वह आज किसी भी कीमत पर ,चाहे हजारों किमी पैदल क्यों न चलना पड़े , अपने गांव लौट जाना चाहता है । वहीं..! उसी पीपल के छांव ! जहां बचपन बीता ,दोस्त और नाते-रिश्तेदार जहां छूट गए हैं ।
लगता है ,यह समय युग के बदलाव का समय है , सभी वर्गों के लिए यह सबक लेने का भी समय है । ग्रामीण परंपराएं फिर लौटेंगी । एक बार इस विभीषिका से निकल जाएं तो भविष्य में इन शहरों से गांव आने वाले भाइयों को हम यहीँ काम का इंतज़ाम करेंगे । पांच दस हजार रुपट्टी की नौकरी के लिए अपनों का साथ नही छोड़ेंगे ।
दो रोटी हम खाएंगे दो उन्हें खिलाएंगे ,गांव घर मे अपनों के बीच मिलजुलकर रहेंगे,
ये लोग शहर से नही लौट रहे, बल्कि परंपरा लौट रही है । आइये , अभी उन्हें वहीं, जहां हैं वहीं केवल सावधान होकर अपनी चिंता करने को कहें ,उनके परिजनों ,उनके बुजुर्गों का गांव में हम गांव वाले ख़याल रखें ।
इस विभीषिका से पार पाकर जब भी ये अपने राज्य, जिला, शहर, गांव,मिट्टी पर लौटें ,भले ही गले न मिल पाएं लेकिन दिल मिलाकर उन्हें स्वीकार करें । और मिलजुल कर छत्तीसगढ़ के गांवों को फिर से तीरथ धाम बना दें ।