पति का क्वेरेन्टाइन -पत्नि की मुसीबत
कहते हैं औलाद के चेहरे पर मां बाप का अश्क होता है । क्यों न हो ..! संतान तो माता पिता का ही अंश होता है , जींस भी तो उसे उन्ही दोनो से ही मिला है । इसिलए तो सगा कहते हैं ..
तो क्या पत्नि सगी नही हो सकती..?
आलेख-होमेन्द्र देशमुख,भोपाल-9425016515
क्या जीन्स ही सारे सगे रिश्ते तय करते हैं ..क्या पत्नि , अपने पति के साथ आकर भी पराई ही रहेगी ..क्या पति को पिता बनाकर, अब भी सगी नही हो पाएगी…?
एक कार्यक्रम में साथ शामिल ऐसे पत्रकार मित्र जिनकी सुपुत्री को हमसे मिलने के तीन दिन बाद कोरोना पॉजीटिव पाया गया और खुद उन्हें ठीक पांच दिन बाद.. और तब से मेरे जैसे कई साथी अपने घरों में ,कमरों में बंद(क्वेरेंटाइन) हैं ।
यह कोई विडंबना नही,न यह कैद है और न ही कामचोरी । यह हमारी बड़ी जिम्मेदारी है । सबका अपना अपना फर्ज है और ‘संयम से नियंत्रण ‘ । यही अब सबसे बड़ी देश सेवा है । इस खतरनाक वाइरस से समाज ,खुद और परिवार को बचाए रखने का यही सबसे अच्छा रास्ता है ।
परिवार यानि कौन ..?
माता पिता बच्चे भाई बहन , आदि ! इस आदि में पत्नि भी होगी जो असल मे आदि कहने लायक नही बल्कि वह अनंत है ।
राष्ट्रीय चैनलों के हैडलाइन के बाद जिस दिन मुझे अलग कमरे में रहने का निर्णय लेना पड़ा तब किसी को तो कुछ नही हुआ ,पर पत्नी ने अपनी चिंता छुपाकर, होंठों पर झूठी मुस्कान लाते ,कमरे के दरवाजे से लग कर पूछीं – क्या उनसे आप भी मिले थे ? उनको पता ही था कि मेरा जवाब हां ही होगा । और वह ‘हां’ सुन गईं , झेल गईं ।
पूछा -चाय पियोगे या वह भी बंद…!
और मेरे अलग रहने के इंतज़ाम में जुट गईं । युद्ध मे जाते योद्धा की पटरानियां ऐसी ही होती हैं ,लाख ग़म सताए ,चिंता और तनाव की लकीरें छुपाते अपने ललाट पर उल्टा वह, सुनहरा इंद्रधनुष खींच लेने की कोशिश करती हैं । जैसे अब आक्रोश के बादल गरजेंगे , न आसुंओ की होगी बारिश ।
वीरांगनाएं ऐसी ही होती हैं । अगर यही, किसी पत्नि के साथ होता तो पति खीझ उठता,चिल्ला पड़ता, बरदाश्त के बाहर हो जाता- “तुम्हें क्या जरूरत.. थी भीड़ में घुसने की.. मास्क.. नही लगा सकते थे..बंद कर के घर बैठ जाओ ..ऐसा काम..” आदि आदि ।
सभी नही , तो हम अधिकतर पुरुषों का यही रवैया होता होगा ।
लाओ कपड़े साफ कर देती हूं ,चलो चाय पिलो , कब तक लौटोगे, इस रविवार छुट्टी मिलेगी, कौन से पाप किये थे जो मीडियावाला मिला , घर कब आओगे , गाड़ी धीरे चलाना, प्रेस कांफ्रेंस में खाना खाकर टिफ़िन वापस मत लाना, सवालों और सुझावों के शब्दों का तो जैसे संसार होता है उनके पास ।
जब हम पर मुसीबत आती है तब अपने माथे पर वो शिकन भी छुपा लेती है । यह सोचकर कि पति का मनोबल कम न पड़ जाय ।चाहे मौका इस तरह कमरे में बंद होने का भी क्यों न आ जाए । हालांकि यह अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी है ,देश का भी ,पति का और पत्नि का भी।
असल मे वह कुछ ज्यादा सोचती भी नही । पत्नियां अक्सर ऐसी ही होती हैं । अगर कोई थोड़ी बहुत फ़िकर हो तो रसोई में रसद और परिवार के पेट और स्वास्थ्य की,
कोरोना की रोकथाम के चलते कर्फ्यू, लॉकडाउन जैसी प्रशासनिक कदम तो होंगी ,अगर संक्रमण का ग्रोथ कम नही हुआ तो और भी बहुत कुछ असुविधाएं बंदिशें बढ़ सकती हैं,यह आश्चर्य नही।
अभी तो बहुत लोगों को सामान मिल रहा है!
मैंने 18 मार्च को कोरोना के कसते शिकंजे को भांप लिया था । उस दिन दिल्ली के स्टोर में राशन लेने वालों की भीड़ उमड़ गई थी । सब को सब्र रखने की सलाह दी जा रही थी । मैं गर्मियों में कम खराब होने के कारण दो महीनों का समान एक साथ लेता हूँ ।
पर मप्र में इन दिनों चल रहे राजनैतिक हंगामे, गतिविधियों और मेरे अनियमित दिनचर्या के कारण 18 मार्च तक चालू महीने का राशन किराना नही ला पा रहा था । 19 मार्च को बढ़ता खौफ देख कर पत्नि को बाहर से फोन किया और किसी भी हालात में अकेले स्टोर जाकर समान ले आने को कहा । कैसे जाऊं, कितना लाऊं ,नगद लाऊं कि कार्ड मँगाउँ …?
इन सब सवालों के लिए मेरी डांट सुनकर झल्लाते हुए आखिर दो महीने का सामान शाम तक ले ही आईं । पर मैं आज ही हड़बड़ी में इसे ले आने का कारण उन्हें नही समझा पाया । कोई पैनिक फैलाना मेरा मकसद नही था । सो ,जब घर लौटा तो वह , वही बमुश्किल 40 दिन के गिने चुने सामान के साथ थीं । पूछने पर भोलेपन से कहा – आधा से ज्यादा मार्च निकल चुका है तो एक मई को फिर ले लेंगे ।
मैं चुप निकला और कुछ दूध पावडर के पैकेट और टिशू पेपर के साथ पांच किलो के राइस का पैकेट लेकर और मैं और आ गया । हम छत्तीसगढ़ियों को चावल के बिना खाने की थाली अधूरी लगती है ।
थैंक गॉड ..!
रसोई की जरूरतों की अब मुझे चिंता थी न ही पत्नि को । वैसे भी थाली बजाने का काम हम पतियों का ज्यादा होता है और वो आपको कभी खाली पेट नही सोने देंगी ।
पत्नि के प्रति ये निर्भरता आपका एहसान या दम्भ नही यह रिश्तों के रसायन और विश्वास का होता है । यह अदृश्य केमैट्री प्रेम के साथ-साथ एक दूसरे के विश्वास के बंधन को भी कंस कर पकड़ी होती है । पुरुष जताता है , पत्नि छुपाती नही तो बताती भी नही ।रिश्तों के इसी रसायन में वह सगी से भी सगी और समर्पित दिखती है । उसका समर्पण प्रेम और जिम्मेदारी है ।
कोई आप पर निर्भरता या उसकी कोई कमजोरी नही । जबकि हमारी उन पर निर्भरता हमारी कमजोरी मात्र है । जिसे हम अपने लिए तकलीफ समझते हैं वह उसके लिए वह भी उसकी अपनी पीड़ा है । जिसे हम उसका समर्पण समझते हैं उसकी वह रोज की आदत है । उसे आपके रिश्तों के व्यापार से ज्यादा लेना देना नही । वह तो सबके लिए सदा साक्षी है ।
कैद हो गए हम और बहुत लोग कमरे में , बड़ा नौकरी करते होंगे , हजारों की चाहे तनखा लाते होंगे ,घर और परिवार चलाने का, और तो और सरकार चलाने का दावा भी करते होंगे । पर हे पति..! आज तुम बंद कमरे में केवल उस पूजनीय पत्नि के चलते साबुत बचे रहोगे । भले ही कुछ लोग मेरी तरह रूम क्वेरेंटाइन में अपने कमरे का पोंछा, अपने कपड़े, अपने बर्तन कर रहे हों , पर चाय,चपाती,दूध, दवाई , आपके माता पिता घर और बच्चों की जिम्मेदारी , सब , आपके चुटकुले की पात्र वही पत्नि कर रही है ।
उसी अबाध और निःछल भाव से जिसे तब तुम अपनी पुरुष और पति होने के दम्भ में कभी देख नही पाते थे । वह आज भी यही कर रही है । वह खून के रिश्तों की परिभाषा में सगी भी नही है । यही असल मे प्रीत-पराई..? का है ।
विज्ञान का एक शोध भी स्वीकार कर चुका है कि चाहे पति-पत्नि का रिश्ता खून का न हो पर लगभग साठ की उमर या लगभग तीस साल एक साथ रहते रहते पति-पत्नि आपस मे खून के रिश्ते जैसे, हमशक्ल, हम-आदत, व्यवहार विचार के लगने लगते हैं । यही दाम्पत्य जीवन की सफलता भी है ।
यही अदृश्य केमिस्ट्री है ।
चाहे कहते रहिये “पत्नि सगी नही…”!
“कमरे में पड़े-पड़े तुम्हारा क्या काम ! बस पकड़े रहो मोबाइल । बारह बज गए न ब्रश किये हो न योग । ठंडा हो गया , अब आज नाश्ता भी नही मिलेगा ।”
मैं नही, कमरे से लगे रसोई से वही *चुड़ैल*..? मेरी पत्नि चिल्ला रही है …
आज लिखने के चक्कर क्वेरेन्टाइन का एक और दिन निकल जाएगा……
आज बस इतना ही..!
(होमेन्द्र देशमुख एबीपी न्यूज़ में वीडियो जर्नलिस्ट है,और इस वक्त सेल्फ क्वारेंटाइन में हैं)